“चल पड़े जिधर दो डग मग में, चल पड़े कोटि पग उसी ओर
पड़ गई जिधर भी एक दृष्टि, उठ गए कोटि दृग उसी ओर”
आचार्य प्रवर जय हो !
ज्ञान, कर्म और भक्तियोग
तीनों थे मूर्तिमान तुम में
गीता का ज्ञान था रचा-बसा
तुम्हारी टेक्नो कुशाग्र बुद्धि में।
आई-आई-टी के तुम स्नातक थे
पाया था मेरिट में ऊँचा नाम
वही बुद्धि लगा दी गीता में
अब तो संपन्न हुआ शुभ काम।
तज कर सांसारिक राग-भोग
तुमने प्रभु-प्राप्ति का मार्ग चुना।
विवेक, कर्म, पुरुषार्थ सहित
तुमने गीता का कोर्स बुना।
पहले की प्लानिंग, फिर उतरे
तुम कर्मस्थली में; कर्मधनी।
शरणागति की तुमने प्रभु की
प्रभु कृपा से हर एक बात बनी।
“मेरे इस गीत-ग्रन्थ को जो होकर निष्काम
कहेगा मेरे भक्तों में
उस मेरे सर्वाधिक प्रिय का
निश्चित प्रवेश मेरे दिव्य धाम में !”
प्रभु की वाणी को बसा लिया
तुमने मन-बुद्धि, अहंता में
इस जीवन का उद्धेश्य चरम
वह परम पुरुषार्थ मनुज तन का –
बन कर विद्युत कौंधा मन में
तुम बने कृष्ण के कृपा-पात्र ;
जन जन से मिलते, समझाते,
मानव जीवन अवसर है मात्र।
इसको पाकर न वृथा गंवाओ,
परिवर्तन लाओ भावों में
हो चुकी बहुत चर्चा जग की
अब डूब लो प्रभु की वाणी में।
वह दीपक दिन-दिन जला रहा
गीता की लौ था लगा रहा।
हर सखा बंधु संबधी को
गीता की महिमा सुना रहा।
स्वामीजी की साधक-संजीवनी
का उसने लिया परम आश्रय
गीता को सरल संतवाणी
से समझाना उसका आशय।
अब कृष्ण-कृपा से शुरू हुई
वह पहली कक्षा गीता की
जयपुर में दस ने फार्म भरे
पर सात जनों को लगन लगी।
संपन्न हुआ वह प्रथम सत्र
अब तो दो क्लासें और खुलीं।
उसके प्रचार पर बरस रही
अब नित्य कृपा श्रीकृष्ण की।
वह बिना थके चलता ही रहा
बढ़ता ही गया निज लक्ष्य की ओर
ऐसी गीता की धूम मची
जयपुर का जन-जन हुआ विभोर।
गोविन्द कृपा से जयपुर में
गीता की क्लास चली चौबीस ;
“हरे कृष्ण, हरे कृष्ण, कृष्ण कृष्ण हरे हरे।
वासुदेव: सर्वम इति, राम कृष्ण जगदीश !”
कृष्ण के गीतोपदेश को उसने
ढाला नित नवीन रूपों में
गीता को समझाया उसने
तीन-दिवसीय सेमिनारों में।
शहर-शहर में पहुँचाया
गीता का परम दिव्य सन्देश ;
जय हो, जय हो आचार्य प्रवर
जय हो तुम्हारा प्रचार-आवेश !
अब इंटरव्यू प्रश्नोत्तरी जी डी करके
गीता की लगन बढ़ाते रहे
सत्संग आदि के माध्यम से
शुभ भगवद्भाव जगाते रहे
अभी तो काम बाकी था
तुम्हारा प्लान था आगे का
पर जब मिला प्रियतम का आदेश
तब चले गए, क्षण भी न लगा।
वह पागल दीवाना प्रेमी
था कृष्ण-प्रेम में रंगा-रचा ;
बस एक इशारा प्रियतम का
सब छूट गया, कुछ भी न बचा।
मानव-जीवन की परम सिद्धि
के तुम विशेष अधिकारी थे ;
सौभाग्य हमारा, हमें मिला सानिध्य तुम्हारा
जिसके हम सहज अधिकारी थे।
तुम गुरु थे, बंधु सखा तुम थे
हर शुभ संकल्प के स्त्रोत थे तुम
अब पास रहो या दूर रहो
हम सब के अंतःकरण में तुम
भक्ति बन कर, कर्म की प्रेरणा बन कर, प्रचार की
शक्ति बन कर, ज्योति बन कर हमारे
जीवन-पथ को आलोकित करते रहो |
—-‘मृण्मयी’
श्रीमती मनु तायल, गीता आचार्य
Sat Sat naman
Aapke ek sannidhya ne meri Geeta padhane ,samjhane ki drashti hi badldi, Krishna ko janane samjhane ki lalsa uttpann kardi, krit krit hun aapka