हरे कृष्ण !!
साधकों के सम्मुख दो बातें विशेष रूप से आती हैं –
एक संसार की और दूसरी भगवान की।
संसार नाषवान् है और परमात्मा अविनाषी हैं।
संसार के संबंध से दुःख-ही-दुःख होता है और परमात्मा के संबंध से आनन्द-ही-आनन्द होता है, दुःख का लेष भी नहीं होता। संसार का आश्रय कभी टिकता ही नहीं है और परमात्मा का आश्रय कभी मिटता नहीं है। इन बातों को हम संत-महापुरूषों से सुनते हैं, वेद-पुराणादि शास्त्रों में पढ़ते हैं और स्वयं मानते भी हैं, परन्तु ऐसा मानते हुए भी हमारा दुःख दूर क्यों नहीं हो रहा है?
हमें परम आनन्द की प्राप्ति क्यों नहीं हो रही है?
हमें भगवान् क्यों नहीं मिल रहे हैं?
क्या आप जानना चाहते हैं की भगवद्गीता को समझने से कैसे आपका जीवन बदल सकता है ?
इस विषय में एक बात पर हमें विशेष ध्यान देना है।
वह यह है कि बातें सुनने, पढ़ने से केवल बौद्धिक या बातूनी ज्ञान होता है। परमात्मतत्त्व की प्राप्ति में अपनी उत्कट अभिलाषा ही काम आती है, बौद्धिक या बातूनी ज्ञान कुछ भी काम नहीं आता। जिस दिन हमें संसार का संबंध सुहायेगा नहीं और हम परमात्मा के बिना रह सकेंगे नहीं, उसी दिन हमें परमात्मा की प्राप्ति हो जायेगी।
संसार असत्य है – ऐसा मानते हुए भी यदि हम सांसारिक सुख-भोगों को भोगते रहेंगे तो उससे हमें कोई लाभ नहीं होगा।
परमात्मा सत्य हैं, उनका नाम सत्य है-ऐसा कहने-मात्र से कोई विशेष लाभ नहीं होगा।
उलझन ज्यों-की-त्यों ही बनी रहेगी। इस उलझन को तभी मिटाया जा सकता है, जब हमारी वर्तमान समस्या यही बन जाय कि संसार से संबंध विच्छेद कैसे हो?
परमात्मा की प्राप्ति कैसे हो?
यह ठीक है कि हम भगवान् के दर्शन चाहते हैं, भगवत्प्रेम चाहते हैं; परन्तु हमारी इस चाह की सिद्धि में एक बहुत बड़ी बाधा हमारी यह मान्यता है कि ‘भविष्य में काफी समय के बाद-भगवत्प्रेम होगा; समय लगेगा; तब कहीं भगवान् दर्शन देंगे।
यह जो भविष्य की आशा है कि फिर होगा, वही परमात्मप्राप्ति में सबसे बड़ी बाधा है!
सांसारिक पदार्थों की प्राप्ति के लिये तो भविष्य की आशा करना उचित है; क्योंकि सांसारिक पदार्थ सदा सब जगह विद्यमान नहीं हैं, परन्तु सच्चिदानन्दघन परमात्मा तो सम्पूर्ण देष, काल, वस्तु और व्यक्ति में विद्यमान हैं, उनकी प्राप्ति में भविष्य का क्या काम?
इस तथ्य की ओर प्रायः साधकों का ध्यान ही नहीं जाता। वे यही मान बैठते हैं कि
इतना साधन करेंगे;
इतना नामजप करेंगे;
ऐसी-ऐसी वृत्तियाँ बनेंगी;
इतना अन्तःकरण शुद्ध होगा,
इतना वैराग्य होगा;
भगवान् में इतना प्रेम होगा;
ऐसी अवस्था होगी,
ऐसी योग्यता होगी-तब कहीं परमात्मा की प्राप्ति होगी! इस प्रकार की अनेक आड़ें (रूकावटें) साधकों ने स्वयं ही लगा रखी हैं।
जिस दिन साधक के भीतर यह उत्कट अभिलाषा जाग्रत् हो जाती है कि परमात्मा अभी ही प्राप्त होने चाहिये
अभी, अभी अभी!
उसी दिन उसे परमात्मप्राप्ति हो सकती है!
साधक की योग्यता, अभ्यास आदि के बल पर परमात्मा की प्राप्ति हो जाय-यह सर्वथा असम्भव है। परमात्मा की प्राप्ति केवल उत्कट अभिलाषा से ही हो सकती है। आप सगुण या निर्गुण, साकार या निराकार-किसी भी तत्त्व को मानते हों, उसके बिना आपसे रहा नहीं जाय, उसके बिना चैन न पड़े।
भक्तिमती मीराबाई ने कहा हैं-‘हेली म्हाँस्यूँ हरि बिन रह्यो ह्ये न जाय।।’ ‘हे सखी! मुझसे हरि के बिना रहा नहीं जाता।’
सन्तों ने भी कहा है-
‘नारायण’ हरि लगन में ये पाँचों न सुहात। विषय भोग, निद्रा हँसी, जगत प्रीति, बहु बात।। ये विषयभोगादि पाँचों चीजें जिस दिन सुहायेंगी नहीं, अपितु कड़वी अर्थात् बुरी लगेंगी, भगवान् का वियोग सहा नहीं जायेगा, उसी दिन प्रभु मिल जायेंगे।
इतने प्यारे भगवान्! इतने प्रियतम परमात्मा! जिनके समान कोई प्यारा हुआ नहीं, है नहीं, होगा नहीं, हो सकता नहीं, ऐसे अपने प्यारे प्रभु के वियोग में हम दिन बिता रहे हैं!
उनके मिले बिना ही हम सुख से रह रहे हैं!
इस प्रकार यदि उस प्रभु के बिना क्षण-क्षण में महान् दुःख होने लगे, प्राण छटपटाने लगें तो भगवान् उसी समय मिल जायेंगे। उनके मिलने में देरी नहीं है। भक्त का भगवत्प्राप्ति-विषयक दुःख वे सह नहीं सकते।
वे कृपा के समुद्र हैं!
भगवान् प्राणिमात्र को आकर्षण कर रहे हैं-उन्हें खींच रहे हैं, इसीलिये उन्हें कृष्ण कहते हैं। प्राणी जिस अवस्था या परिस्थिति में रहता है, उसमें भगवान् उसे टिकने नहीं देते-यही उनका खींचना है! यह भगवान् का बुलावा है कि मेरे पास आओ! गीता में भगवान् श्री कृष्ण कहते हैं।
‘हे अर्जुन! ब्रह्मलोकपर्यन्त सब लोक पुनरावर्ती वाले हैं अर्थात् जिनको प्राप्त होकर पीछे संसार में आना पड़े, ऐसे हैं, परन्तु हे कौन्तेय! मुझको प्राप्त होकर पुनर्जन्म नहीं होता।’ (गीता 8.16)
तात्पर्य यह है कि भगवत्प्राप्ति के बिना मनुष्य कहीं भी टिकता नहीं है और बारंबार संसार में ही घूमता रहता है। भगवान् को प्राप्त होने पर ही मनुष्य टिकता है।
‘जहाँ जाने पर मनुष्य लौटकर नहीं आता, वह मेरा परमधाम है।’ (गीता 15.6)
अतएव यदि आप संसार से विमुख हो जाओगे तो भगवान् की प्राप्ति हो जायेगी और आप सदा के लिये सुखी हो जाओगे। यदि संसार में ही रचे-पचे रहे तो दुःख का अन्त कभी आयेगा ही नहीं और नित्य नया-से-नया, तरह-तरह का दुःख मिलता ही रहेगा।
यह बड़े दुःख की बात है कि लोग भगवान् और सन्त-महात्माओं से भी सांसारिक सुख माँगते हैं! दान-पुण्यादि करके भी बदले में सांसारिक भोग चाहते हैं। परमात्मतत्त्व को बेचकर बदले में महान् दुःखों के जालरूप संसार को खरीद लेते हैं। यह महान् कलंक की बात है!
मूर्ख लोग अमृत को देकर बदले में जहर ले लेते हैं। परमात्मप्राप्ति के लिये मिले हुए इस मनुष्य-षरीर में नाषवान् सांसारिक पदार्थों की माँग के बिना हमसे रहा नहीं जाता तो आप आर्त होकर भगवान् से प्रार्थना करें कि हे प्रभो! यह भोग-पदार्थों की माँग हमसे मिटती नहीं है, अतएव आप ही इसे मिटा दें। यदि आपकी यह प्रार्थना सच्ची होगी तो भगवान् अवष्य मिटा देंगे। भगवान् के समान कोई भी नहीं है। अर्जुन भगवान् से कहते हैं-
‘हे अनुपम प्रभाव वाले प्रभो! तीनों लोकों में आपके समान भी दूसरा कोई नहीं है, फिर अधिक तो कैसे हो सकता है।’ (गीता 11.43)
कहा है- ‘नारायण’ बिना मोल बिकी हों याकी नैक हसन में। मोहन बसि गयो मेरे मन में।।
वे प्रभु यदि थोड़ा-सा भी मुसकरा दें तो आपका सब कुछ समाप्त हो जायेगा; शेष कुछ भी नहीं बचेगा। आपको कुछ नहीं करना पड़ेगा। प्रेम, ज्ञान, मुक्ति आदि का उसके सम्मुख कोई मूल्य नहीं।
उस नन्दकुमार में इतना आकर्षण है कि एक बार उसके दृष्टिगोचर होने पर फिर ब्रह्म-विचार करने की शक्ति ही नहीं रहती। ऐसे प्रभु के रहते हुए हम नाशवान् एवं दुःख देने वाले सांसारिक पदार्थों में फँसे हुए हैं और फँस ही नहीं रहे हैं उनकी माँग कर रहे हैं। मान-बड़ाई, आराम, निरोगता, सुख-सुविधा, धन-सम्पत्ति आदि अनेक प्रकार के भोग्य पदार्थों को चाहते हैं-यह बड़ी भारी बाधा है।
यदि भगवत्प्राप्ति की उत्कट अभिलाषा जाग्रत् न भी हो तो भी आप घबरायें नहीं।
भगवान् कहते हैं-‘निष्चयात्मिका बुद्धि एक ही होती है।’ अतएव आप यही दृढ़ निष्चय कर लें कि हम तो एक भगवान् की तरफ ही चलेंगे।
यदि केवल भगवान् की तरफ चलने की इस अभिलाषा को ही विचार पूर्वक जाग्रत् रखा जाय तो यह अभिलाषा अपने-आप उत्कट हो जायगी।
इसका कारण यह है कि प्रभु की अभिलाषा सही है और संसार की अभिलाषा गलत है। परमात्मा भी अविनाषी है और परमात्मप्राप्ति की अभिलाषा भी अविनाषी है। परन्तु संसार और संसार की अभिलाषा-दोनों ही नाशवान् हैं।
मान लें कि हम उनके चरणों में ही पड़े हैं और सदा उनके चरणों में ही पड़े रहना है। इसके अतिरिक्त कुछ भी नहीं करना है, क्योंकि करने के आधार पर भगवान् को खरीदा नहीं जा सकता। उनकी प्राप्ति में अपने को कभी अयोग्य न माने।
जो सर्वथा अयोग्य या अनधिकारी होता है वही भगवच्चरणों की शरण होने का अधिकारी होता है। जिसको संसार में कोई पद या अधिकार नहीं मिलता, वह परमात्मप्राप्ति का अधिकारी होता है। भगवान् के चरणों में गिर जाना बहुत बड़ा भजन है।
पूरी गीता कहने के बाद भगवान् ने सम्पूर्ण गोपनीयों से भी अतिगोपनीय बात यह कही-
सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज। अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः।। (गीता 18.66)
‘सम्पूर्ण धर्मों (कर्तव्यकर्मों के आश्रय) को त्यागकर केवल एक मेरी शरण में आ जा। मैं तुझे सम्पूर्ण पापों से मुक्त कर दूँगा। तू शोक मत कर।’
इसलिये दूसरे सब आश्रय त्यागकर एक प्रभु का ही आश्रय ले लें, क्योंकि यही टिकेगा, दूसरे आश्रय तो कभी टिक ही नहीं सकते।
हरे कृष्ण !!