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मोह का त्याग विवेक के साथ

हरे कृष्ण !!

भगवदवाणी गीता का दूसरा अध्याय सांख्ययोग जो विवेक को लेकर है, इस अध्याय में अर्जुन के माध्यम से हमारे मोह को दूर करने के लिए भगवान् ग्यारहवे श्लोक से शिक्षा देना आरंभ करते हैं I 11 से लेकर 30वे  श्लोक तक कृष्ण शरीर-शरीरी के विवेक से अर्जुन को समझाते हैं कि यह शरीरी सदैव रहने वाला है, अविनाशी हैं लेकिन शरीर सदैव बदलने वाला हैं और विनाशी है I तू शरीरी है, शरीर नहीं है I इसलिए शरीर के विनाश को लेकर शोक करना उचित नहीं हैं I

श्लोक 31 से 38 श्लोक तक भगवान् कर्तव्य पालन पर जोर देते हुए अर्जुन से कहते हैं कि धर्ममय युद्ध तो क्षत्रिय होने के नाते तेरा कर्तव्य है, लेकिन इस युद्ध रुपी कर्तव्य कर्मों को कर, सुख-दुःख लाभ-हानि जय-पराजय मे समता रखते हुए I (2.38)  

समता की महिमा का विषद वर्णन गीता मे देखने को मिलता है I (2.39, 2.40)। समता तो भगवान का स्वरूप ही है| उस समता की प्राप्ति के लिए परमात्मा प्राप्ति का दृढ निश्चय  बहुत आवश्यक है I (2.41), यह निश्चय नहीं हो पाने मे मनुष्य की संसार के भोगो और संग्रह की रूचि ही खास बाधक  है I

क्या आप जानना चाहते हैं की भगवद्गीता को समझने से कैसे आपका जीवन बदल सकता है ?

भगवान् उचित कर्म र्करने की प्रेरणा देते हुए कहते है कि मनुष्य योनि में अपने विवेक का उपयोग करके नये कर्म करने की स्वतंत्रता दी हुई है, यही तो इसकी विशेषता है I लेकिन उन कर्मों को करना है, आसक्ति और कमना का त्याग करके  I 

आसक्ति कामना के त्याग का अर्थ  है कर्मों को केवल दूसरों के हित के लिए करे I उनसे बदले में अपने लिए कुछ भी न चाहे I उद्देश्य भगवान् प्राप्ति का यदि दृढ हो जाये तो कर्मों को करने में ड्राइविंग फ़ोर्स स्वसुख न होकर कर्तव्य पालन द्वारा दूसरों की सेवा हो जाता है I

योग की परिभाषा देते हुए भगवान समता ही योग है, ऐसा कहते है (2.48), कर्म मुक्ति दायक तव ही हो सकते हैं I जब कर्मों  और उनके फलो के प्रति कोई आसक्ति न हो, वास्तव में कर्मों में योग ही कुशलता हैं I(2.50)

कर्मयोग मे कर्म की प्रधानता न होकर योग की प्रधानता है I मन की स्थिरता के वजाय  बुद्धि की स्थिरता अधिक महत्वपूर्ण है क्योकि बुद्धि स्थिर होने पर ही मन और इन्द्रियाँ  का संयम संभव है I  अर्जुन स्थिर बुद्धि के विषय में प्रश्न करते हुए पूछते हैं कि स्थिर बुद्धि मनुष्य के क्या लक्षण हैं और वह कैसे व्यवहार करता है I (2.54)  

इस अध्याय के 55 से 72वें श्लोक तक कृष्ण ने इन प्रश्नों का उत्तर दिए  है I वह कहते है कि स्थिर बुद्धि के लिए समस्त कामनाओं का त्याग आवश्यक है I(2.55)  जब तक मनुष्य में भोग, संग्रह, नाम, बढाई, आराम की कामना है I तब तक उसकी बुद्धि स्थिर नहीं हो सकती I

आगे स्थिर बुद्धि मनुष्य के लिए कहते है कि  जिसकी इन्द्रिय पूरी तरह वश मे है उसकी बुद्धि स्थिर है I इन्द्रिय संयम के लिए आवश्यक है, भगवत प्राप्ति का दृढ उद्देश्य होना, यदि चिंतन भगवान् का नहीं है तो फिर विषयों का ही चिंतन होगा I विषय चिंतन से मनुष्य का पतन कैसे हो जाता है I उसका क्रम कृष्णा ने (2.62, 2.63) में बताया है I 

इसके विपरीत कृष्ण कहते है, यदि राग द्वेष से रहित बुद्धि के द्वारा साधक विषयों का सेवन भी करता है तो मन की प्रसन्नता को प्राप्त होता है I (2.64, 2.65) भगवत सम्बन्धी मन की प्रसन्नता हो या उत्कंठा दोनों से ही भगवत प्राप्ति कराने वाले हैं I

जिसकी इन्द्रियाँ वश में नहीं है I उसकी एक इन्द्रिय भी विषय मे आसक्त होकर मन को अपना अनुगामी बना लेती है और मनुष्य का पतन करा देती है I (2.67)

अंत मे भगवान् कहते है कि भगवत प्राप्ति की लिए कामनाओं का त्याग, इन्द्रियाँ का संयम  और भगवत प्राप्ति का दृढ उद्देश्य ही कारण है I (2.71)

हरे कृष्ण !!

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