Bhagavad Gita 2.47

Bhagavad Gita 2.47: Verse 47

कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन ।
मा कर्मफलहेतुर्भुर्मा ते संगोऽस्त्वकर्मणि ॥2.47॥

भावार्थ - Gist

तेरा कर्म करने में ही अधिकार है, उसके फलों में कभी नहीं। इसलिए तू कर्मों के फल हेतु मत हो तथा तेरी कर्म न करने में भी आसक्ति न हो॥2.47॥

You are entitled to works, never to the fruits of those. Therefore do not either see yourself the cause of fruits of action or allow yourself to be drawn towards non-action.

व्याख्या - Explanation

1. मनुष्य शरीर में दो बातें हैं- पुराने कर्मों का फल भोग और नया पुरुषार्थ। दूसरी योनियों में केवल पुराने कर्मों का फल भोग है, अर्थात् कीट, पतंग, पषु-पक्षी, देवता, ब्रह्मलोक तक की योनियाँ भोग योनियाँ हैं। इसलिये उनके लिये ऐसा करो, ऐसा मत करो- यह विधान नहीं है। कुल 84 लाख योनियाँ हैं।
2. सिर्फ मनुष्य योनि में नये कर्म करने की छूट है। ये नये कर्म ही भविष्य का निर्माण करते हैं। मनुष्य नये कर्म करने में स्वतन्त्र है, किन्तु फल भोग के रूप में अनुकूल, प्रतिकूल परिस्थिति पाने में परतन्त्र है। पर भगवान् ने हमारे प्रति विषेष प्रेम के कारण दोनों ही परिस्थितियों में (नये कर्म करने में व फल प्राप्ति में) हमारा उद्धार सम्भव किया है। सिर्फ दोनों का सदुपयोग करना है। अर्थात् यदि समझदारी से काम लिया जाये, तो नया पुरुषार्थ भी उद्धार के लिये है।
3. विषेष समझने की बात है कि हमारे सामने जो भी परिस्थिति आती है, उससे सुखी-दुःखी होना कर्मों का फल नहीं है, वरन् मूर्खता का फल है। कारण कि परिस्थिति तो बाहर से बनती है और सुखी-दुःखी होते हैं हम। उस परिस्थिति के साथ यदि हम तादात्म्य न करें और उसका सदुपयोग करें तो वही परिस्थिति हमारे उद्धार की साधन सामग्री बन जायेगी।
4. सुखदायी परिस्थिति का सदुपयोग है- दूसरों की सेवा करना और दुःखदायी परिस्थिति का सदुपयोग है- सुख भोग की इच्छा का त्याग करना। दुःखदायी परिस्थिति के आने पर घबराने के बजाय उसे भगवान् की कृपा समझना चाहिये क्योंकि पुराने पापों के फल का उनके द्वारा प्रायष्चित हो रहा है और हम शुद्ध हो रहे हैं। किन्तु ऐसे में हम विचलित न हो जायें, नहीं तो दूसरा पाप कर्म कर बैठेंगे, जिससे बजाय शुद्ध होने के हम उस सिलसिले को जारी रखेंगे।
5. कर्मफल का हेतु बनना क्या है? शरीर, मन, बुद्धि, इन्द्रियाँ आदि में जरा भी ममता रहने से मनुष्य कर्मफल का हेतु बन जाता है। मेरे द्वारा किसी का उपकार हो गया, किसी को सुख पहुँचा, यह कर्मफल का हेतु बनना है। इससे भी बन्धन होगा।
6. कर्म न करने में तेरी आसक्ति न हो- अन्यथा प्रमाद, आलस्य, निद्रा आदि होंगे, जो तामसी लक्षण हैं। इसका फल तो नरक ही है।

  1. There are two things in human body – fruits of old actions and scope for new actions (Karmas). In other bodies one can only experience fruits of old actions i.e, animals, birds, demigods and even residents of Brahmaloka have the bodies meant for sense pleasures. There are no rules of desirable and undesirable actions for them. There are 84 lacs types of births.
  2. One has liberty to perform new Karmas only in human body which create their future. Man is free to act but has a bondage to necessarily experience favorable or unfavorable circumstances as a result of his old Karmas ( either in this life or earlier births). However the all merciful and loving Krishna has made both (adverse and favorable) the circumstances beneficial to us. This just requires making proper use of these circumstances. Hence with proper intelligence we can really use the great opportunity to perform new Karmas to realize our life’s goal.
  3. Important thing to understand is – to become happy – unhappy in any circumstance is not due to the fruit of our old actions but is entirely due to our foolishness. To feel happiness or unhappiness is the experience of inner body (mainly mind) but the circumstances impact on the gross body outside. If we do not develop a relationship with those circumstances and properly utilize the available circumstances – those very circumstances would lead to our salvation.
  4. Utilization of favorable circumstances is to use them in the service of others and utilization of adverse circumstances is to leave the desire for sense happiness. Instead of getting perplexed or unhappy on experiencing adverse circumstances they must be accepted as Krishna’s Prasad (blessing) as this reaction is eroding our earlier sins and we are     getting purified. But if we start accepting its impact on our own mind and feel miserable then a new sin would have been created instead of purification process.
  5. What is meant by credit for the results of our actions? Slightest attachment to body, mind, intelligence, senses leads to taking credit of past actions. Somebody has been benefitted by me , I have pleased him is taking credit for his benefit or pleasure. This would also cause bondage.
  6. Do not feel inclined in inaction – otherwise sense enjoyments, business, excessive sleeping tendencies would be experienced. These are signs of  ignorant mode and would undoubtedly lead one to hell.