Bhagavad Gita 3.8: Verse 8
नियतं कुरु कर्म त्वं कर्म ज्यायो ह्यकर्मणः।
शरीरयात्रापि च ते न प्रसिद्ध्येदकर्मणः।।3.8।।
भावार्थ - Gist
तू शास्त्रविहित कर्तव्यकर्म कर क्योंकि कर्म न करने की अपेक्षा कर्म करना श्रेष्ठ है तथा कर्म न करने से तेरा शरीर-निर्वाह भी नहीं सिद्ध होगा॥3.8॥
Perform your duties, prescribed in authorized scriptures because doing so is better than doing nothing . Furthermore by avoiding work totally you would not be able even to sustain your life.
व्याख्या - Explanation
कृष्ण की प्राप्ति या कल्याण चाहने वाले साधक साधन तो करते हैं, पर अपनी मनचाही परिस्थिति, अनुकूलता और सुख-बुद्धि (जिनका निषेध बताया जाता है), उनको भी साथ में रखते हैं, फलस्वरूप कल्याण में बाधा लगती है या विलम्ब होता है।
जो साधक कृष्ण-प्राप्ति में सुगमता ढूँढ़ता है और उसे शीघ्र प्राप्त करना चाहता है, वह वास्तव में सुख का रागी है, न कि साधन का प्रेमी। जो सुगमता चाहता है, उसे कष्ट सहना पड़ता है और जो शीघ्रता चाहता है, उसे विलम्ब सहना पड़ता है। लोभी मनुष्य में भी प्रायः देखा गया है कि पसीना आ रहा है, भूख लगी है, फिर भी यदि माल की बिक्री विशेष हो रही है और लाभ आ रहा है, तो वह इन कष्टों को सहन कर लेता है। इसी तरह साधक की निष्ठा भी होनी चाहिये कि कृष्ण की प्राप्ति के बिना चैन से रहा नहीं जाये; खाना, पीना, आराम- कुछ भी अच्छा न लगे और हृदय में साधन का आदर एवं तत्परता रहे।
कर्मयोग और भक्तियोग में साधना क्या हैं ?
निष्काम भाव से कर्म करना कर्मयोग की साधना है और कृष्ण का नाम लेना, उनकी पूजा करना, उनकी दिव्य कथाओं को सुनते रहना और सबसे प्रेम करना भक्तियोग की साधना है।