Bhagavad Gita 14.22: Verse 22
श्री भगवानुवाच
प्रकाशं च प्रवृत्तिं च मोहमेव च पाण्डव।
न द्वेष्टि सम्प्रवृत्तानि न निवृत्तानि काङ्क्षति।।14.22।।
भावार्थ - Gist
श्री भगवान ने कहा – जो मनुष्य ईश्वरीय ज्ञान रूपी प्रकाश (सतोगुण) तथा कर्म करने में आसक्ति (रजोगुण) तथा मोह रूपी अज्ञान (तमोगुण) के बढने पर कभी भी उनसे घृणा नहीं करता है तथा समान भाव में स्थित होकर न तो उनमें प्रवृत ही होता है और न ही उनसे निवृत होने की इच्छा ही करता है।।14.22।।
The Lord spoke: O Pandava! Finding all three tendencies—illumination of intellect, ceaseless activity and delusion abundantly present within himself, he is not repelled by them; nor, when all three are absent within him, does he yearn for them.
व्याख्या - Explanation
(1) इन्द्रियों और अन्तःकरण की स्वच्छता, निर्मलता का नाम प्रकाश है। कृष्ण ने पहले सतोगुण की दो वृत्तियाँ बतायी थीं- ज्ञान और प्रकाश। उनमें से केवल प्रकाश का ही नाम लेने का तात्पर्य है कि सत्त्वगुण में प्रकाश वृत्ति ही मुख्य है। क्योंकि जब तक इन्द्रियों और अन्तःकरण में प्रकाश, निर्मलता नहीं आती, तब तक विवेक (ज्ञान) जाग्रत् नहीं होता। प्रकाश के आने पर ही ज्ञान जाग्रत् होता है। अतः यहाँ ज्ञान वृत्ति को प्रकाश के अन्तर्गत ही लेना चाहिये।
(2) रजोगुण के दो रूप हैं- राग और क्रिया। इनमें राग दुःखों का कारण है। गुणातीत में यह राग नहीं होता, इसीलिये गुणातीत मनुष्य से निष्काम भाव पूर्वक क्रियाएँ स्वतः ही होती है। इस क्रियाशीलता को कृष्ण ने प्रवृत्ति कहा है।
(3) मोह दो प्रकार का है (1) सत्-असत्, कर्तव्य-अकर्तव्य का विवेक न होना और (2) व्यवहार में भूल होना। गुणातीत में विवेक तो होता ही है (4.35) परन्तु व्यवहार में भूल यथा दोषी को निर्दोष मान लेना या निर्दोष को दोषी मान लेना, रस्सी में साँप दीख जाना आदि, गुणातीत मनुष्य से भी हो सकती है।
(4) वृत्तियाँ एक समान किसी की भी नहीं रहती। तीनों प्रकार की वृत्तियाँ गुणातीत महापुरुष के अन्तःकरण में भी होती हैं, किन्तु उसका उन वृत्तियों से राग-द्वेष नहीं होता। वृत्तियाँ आती हैं और चली जाती हैं।
(5) देखना और दीखना – दोनों में अन्तर है। देखना करने के अन्तर्गत है और दीखना होने के अन्तर्गत है। अतः दोष देखने में हो सकता है, दीखने में नहीं। अतः खराब से खराब वृत्ति भी यदि दीख जाय, तो भी उसको घबराना नहीं चाहिये। साधक से भूल यही होती है कि वह दीखने वाली वस्तु को (राग-द्वेष के कारण) देखने लग जाता है और फँस जाता है।