Bhagavad Gita 16.22: Verse 22
एतैर्विमुक्तः कौन्तेय तमोद्वारैस्त्रिभिर्नरः।
आचरत्यात्मनः श्रेयस्ततो याति परां गतिम्।।16.22।।
भावार्थ - Gist
हे अर्जुन! इन तीनों नरक के द्वारों से मुक्त पुरुष अपने कल्याण का आचरण करता है (अपने उद्धार के लिए भगवदाज्ञानुसार बरतना ही ‘अपने कल्याण का आचरण करना’ है), इससे वह परमगति को जाता है अर्थात् मुझको प्राप्त हो जाता है ॥16.22॥
O son of Kunti! The man who, having escaped from these three gates of hell, strives for his salvation, attains the Supreme Divinity through it (his spiritual practice).
व्याख्या - Explanation
(1) पूर्व श्लोक में जिन काम, क्रोध और लोभ को नरक का दरवाजा कहा था, उन्हीं को यहाँ तमोद्वार कहा गया है। अन्तः इनसे मुक्त होकर जो अपने कल्याण का आचरण करता है, वह परमगति को प्राप्त हो जाता है।
(2) जप, ध्यान, कीर्तन, सत्संग, स्वाध्याय आदि हमें शुद्ध बना देंगे- ऐसा भाव साधक में विशेष रहता हैं, परन्तु जो हमें अशुद्ध कर रहे हैं, उन दुर्गुण दुराचारों को हटाने का ख्याल साधक में कम होता है। इसलिये 8.14 के अनुसार साधक नींद खुलने से लेकर नींद आने तक सब का सब समय भगवान् के चिन्तन में लगाये तथा चिन्तन के सिवाय काम आदि को किंचिन्मात्र भी अवसर न दे।
(3) काम-क्रोध-लोभ से रहित होने का तात्पर्य है- इनके त्याग का उद्देश्य रखना, इनके वश में न होना। काम-क्रोध-लोभ को पकड़े रहने से कल्याण का आचरण करने पर भी कल्याण नहीं होता, क्योंकि ये सम्पूर्ण पापों के कारण है।