Bhagavad Gita 2.7: Verse 7
कार्पण्यदोषोपहतस्वभावः
पृच्छामि त्वां धर्मसम्मूढचेताः ।
यच्छ्रेयः स्यान्निश्चितं ब्रूहि तन्मे
शिष्यस्तेऽहं शाधि मां त्वां प्रपन्नम् ॥2.7॥
भावार्थ - Gist
इसलिए कायरता रूप दोष से उपहत हुए स्वभाव वाला तथा धर्म के विषय में मोहित चित्त हुआ मैं आपसे पूछता हूँ कि जो साधन निश्चित कल्याणकारक हो, वह मेरे लिए कहिए क्योंकि मैं आपका शिष्य हूँ, इसलिए आपके शरण हुए मुझको शिक्षा दीजिए॥2.7॥
Despicable in my cowardice and confused in conscience about my duty, I (Arjun) beseech you to give me that enlightenment which will lead me to my certain welfare. I am your disciple and your protégé, kindly instruct me.

व्याख्या - Explanation
1. इस श्लोक में अर्जुन कायरता रूपी दोष को मानकर (क्योंकि भगवान् ने 2.2 में ऐसा कहा था) श्रीकृष्ण की शरण में जाते हैं और शिक्षा की भीख माँगते हैं। उपदेश का आधार अब बन जाता है।
2. शरणागति का बड़ा विचित्र असर होता है। गुरु का कर्तव्य है- सीख देना, पर अपनी भलाई के लिये शिष्य को उसका पालन करना होगा; परन्तु शरणागति इससे भी बढ़कर है। जैसे यदि कोई बच्चा माँ के दूध पर ही आश्रित है और वह बीमार पड़ जाता है, तो अपने उस बच्चे को ठीक करने के लिये शायद माँ को ही दवा लेना पड़े।
3. पर वास्तव में अर्जुन सर्वथा शरण हुए नहीं है, नहीं तो ‘शिक्षा दीजिये’- यह कहना नहीं बनता। शिक्षा देना है कि क्या करना है, यह तो सिर्फ उस पर निर्भर करता है, जिसकी शरण में जाते हैं। उसका काम तो सिर्फ कहना मानना है।