Bhagavad Gita 2.11: Verse 11
गीताशास्त्र का अवतरण
श्री भगवानुवाच
अशोच्यानन्वशोचस्त्वं प्रज्ञावादांश्च भाषसे ।
गतासूनगतासूंश्च नानुशोचन्ति पण्डिताः ॥2.11॥
भावार्थ - Gist
श्री भगवान बोले, हे अर्जुन! तू न शोक करने योग्य मनुष्यों के लिए शोक करता है और पण्डितों के से वचनों को कहता है, परन्तु जिनके प्राण चले गए हैं, उनके लिए और जिनके प्राण नहीं गए हैं उनके लिए भी पण्डितजन शोक नहीं करते॥2.11॥
(Krsna) spoke: you are grieving for that which is not worthy of grief and are spouting words of wisdom; but the wise men never grieve for those whose lives are lost, nor for those who are still living.

व्याख्या - Explanation
1. मनुष्य संसार के प्राणी और पदार्थों में दो विभाग कर लेता है- ये मेरे हैं, ये मेरे नहीं हैं; जैसे- यह मेरी कार है, मेरा स्कूटर है या मेरे कपड़े हैं। यदि मेरी चीज को कुछ हो जाये, तो बुरा लगता है, दुःख होता है। इसी प्रकार यह मेरा भाई है, मेरा मित्र है, मेरी बहन है, मेरे देश का है और यदि उन्हें कुछ हो जाय, तो दुःख होता है।
2. जो हमारे होते हैं उनमें ममता, आसक्ति हो जाती है। हमारी के लिये कामना उत्पन्न होती है। ममता, कामना और आसक्ति से ही सभी दोष और अनर्थ होते हैं। इनसे भय, चिन्ता, शोक, उद्वेग आदि होते हैं।
3. संसार में दो चीजें हैं- सत् और असत्, शरीरी और शरीर। शरीरी कभी मरता नहीं, शरीर का विनाश होगा ही – इन दोनों में ही शोक क्यांे। स्कूटर पर बैठकर बहरोड़ के लिये चले और बहरोड़ पहुँच गये। तो क्या है शोक का कारण? शरीर का धर्म है- नष्ट होना। और वह नष्ट हो गया, फिर शोक कैसा? शरीरी तो मर सकता ही नहीं।
(अ) गीता का उपदेश शरीर और शरीरी से आरम्भ होता है। शरीर निरन्तर नष्ट हो रहा है और शरीरी सदैव ज्यों का त्यों रहता है। इसका अनुभव करके इस भाव को गहराई से बैठा लेना है कि मैं कौन हूँ- शरीर या शरीरी। इसके बिना कल्याण सम्भव ही नहीं। चिन्ता, भय, शोक, उद्वेग रहेंगे ही। आनन्द हो सकता नहीं। कितने ही उपदेश सुन लें, साधन कर लें, समस्या बनी रहेगी।
(ब) जो वस्तु अपनी नहीं है, उसे अपनी मान लें या जो अपनी है, उसे परायी मान लें- यह बड़ी भूल है। दूसरे की गाड़ी या कपड़ों को अपना मान लें तो समस्या तो होगी ही। अपनी गाड़ी दूसरे की जिम्मेदारी पर छोड़ दें, तो जेल भी हो सकती है।
हमारा क्या है? जो सदा हमारे साथ रहे और हम सदा जिसके साथ रहें। वह क्या है?
किराये का घर क्या हमारा है? थोड़े समय के लिये रहने के लिये मिला है। तब तक के लिये नहीं, जब तक हम चाहें। हम तो शरीरी हैं, जिसकी आयु मात्र 40-50 वर्ष नहीं है, मात्र हजारों या लाखों वर्ष भी नहीं। हम तो अजन्मा और अविनाशी हैं। यदि हमें 2-4 वर्ष (बहुत छोटी सी अवधि) के लिये कोई वस्तु मिल जाये, तो वह हमारी कहाँ हो सकती है? हाँ, शरीर से सम्बन्ध उसका हो सकता है।
पर शरीर भी तो हमारा नहीं हो सकता। अधिकतम 100 वर्ष- जो कि हमारी अब तक की अनन्त आयु के सामने नगण्य है। फिर हमारा क्या है? – केवल परमात्मा, ईश्वर, भगवान्। हम मात्र उन्ही के हैं, वे ही मात्र हमारे हैं। दूसरा कोई नहीं, कोई नहीं। बात इतनी सी है। यदि समझ में आ जाये, तो कल्याण हो जाये। दुःख हो सकता ही नहीं। जो अपना है, उसमें यदि प्रीति जग गयी, तो खुशी का ठौर नहीं रहेगा, हर क्षण बढ़ेगी। ‘मेरे तो गिरिधर गोपाल, दूसरो न कोई’- दोनों बातें समझ में आ गयी, तो फिर मीरा क्यों नहीं होती, प्रेम में दीवानी?
एक बात और। आप कह सकते हैं कि शरीर को तो हम देखते हैं, पर आत्मा को नहीं, इसलिये आत्मा का चक्कर बिल्कुल समझ में नहीं आता।
(अ) देखते हैं- आँखों से, जो कि सीमित शक्ति वाली हैं। पूर्ण सत्य नहीं है वह। फिर सिर्फ उस पर यकीन क्यों करें? फिर किस पर यकीन करें? भगवान् पर। वे ही सत्य हैं। वे कभी असत्य नहीं कहते, सदैव हमारा कल्याण चाहते हैं। वे हमें प्यार करते हैं, यह अपने हृदय में बैठा लीजिये।
(ब) इसे समझना मुश्किल है। मुश्किल हो, या आसान, सत्य यही है। हम शरीर हैं- यह सत्य नहीं है। रुपये को समझना आसान है और पौंड को समझना मुश्किल है, पर यदि इंग्लैंड में रहना है, तो पौंड को ही अच्छी तरह से समझना होगा।
अब भगवान् शरीर, शरीरी के बारे में बतातेे हुए कहते हैं-