Bhagavad Gita 5.15: Verse 15
नादत्ते कस्यचित्पापं न चैव सुकृतं विभुः।
अज्ञानेनावृतं ज्ञानं तेन मुह्यन्ति जन्तवः।।5.15।।
भावार्थ - Gist
सर्वव्यापी परमेश्वर भी न किसी के पाप कर्म को और न किसी के शुभकर्म को ही ग्रहण करता है, किन्तु अज्ञान द्वारा ज्ञान ढँका हुआ है, उसी से सब अज्ञानी मनुष्य मोहित हो रहे हैं॥5.15॥
The all-pervasive Supreme God assumes neither sinful nor pious activities performed by anyone. But knowledge is covered by ignorance and hence all the living beings are being deluded.
व्याख्या - Explanation
(1) सूर्य सम्पूर्ण जगत् को प्रकाश देता है और उस प्रकाश में मनुष्य पाप और पुण्य- दोनों प्रकार के कर्म करते हैं, परन्तु उन कर्मों से सूर्य का किंचिन्मात्र भी सम्बन्ध नहीं है। भगवान् ने मनुष्य को कर्म करने की स्वतन्त्रता दे रखी है। अतः मनुष्य अपने कर्मों का फलभागी अपने को भी मान सकता है और उन कर्मों और फलों को भगवान् को अर्पण करके फल भागी भगवान् को भी मान सकता है। जो भगवान् की दी हुई स्वतन्त्रता का दुरुपयोग करके कर्मों का कर्ता और भोक्ता अपने को मान लेता है, वह बन्धन में पड़ जाता है। उसके कर्म और कर्मफल को भगवान् नहीं ग्रहण करते। परन्तु जो उसे दी हुई स्वतन्त्रता का सदुपयोग करके कर्म और कर्मफल भगवान् को अर्पण कर देता है, उसे भगवत्प्राप्ति हो जाती है।
(2) जैसे अंधकार में सूर्य को ढकने की ताकत नहीं है, ऐसे ही अज्ञान में ज्ञान को ढकने की सामर्थ्य नहीं है। अपने को शरीर मानना अज्ञानता है, जिससे मनुष्य मोहित हो जाता है। वास्तव में स्वयं तो फिर भी शरीरी ही है और उसे शरीर मानने पर उसकी वास्तविक स्थिति में कोई फर्क नहीं पड़ता। मनुष्य चाहे, तो विवेक का उपयोग करके अपनी मूढता भरी मान्यता को मिटा सकता है। वास्तव में ज्ञान नहीं ढकता, अपितु बुद्धि ही ढकती है, परन्तु मनुष्य को ज्ञान ढका हुआ दीखता है।
(I) by performing an activity or
(II) by making others act. The Supreme Lord neither performs any activity nor does He make others perform any activity. Hence he could not possibly assume the responsibility of fruits of the actions.