Bhagavad Gita 14.13: Verse 13
अप्रकाशोऽप्रवृत्तिश्च प्रमादो मोह एव च।
तमस्येतानि जायन्ते विवृद्धे कुरुनन्दन।।14.13।।
भावार्थ - Gist
हे कुरुवंशी अर्जुन! जब तमोगुण विशेष बृद्धि को प्राप्त होता है तब अज्ञान रूपी अन्धकार, कर्तव्य-कर्मों को न करने की प्रवृत्ति, पागलपन की अवस्था और मोह के कारण न करने योग्य कार्य करने की प्रवृत्ति बढने लगती हैं।।14.13।।
O Son of Kuru, when there is an increase in the mode of ignorance (tamas), then darkness, inactivity, inattention (perversity) and delusion become manifest.

व्याख्या - Explanation
(1) अप्रकाश- तमोगुण के बढ़ने पर विवेक लुप्त हो जाता है, समझने की शक्ति लुप्त हो जाती है, इसी को यहाँ अप्रकाश कहा गया है।
(2) अप्रवृत्ति- आवश्यक कार्य करने की रुचि नहीं रहती, निरर्थक बैठे रहने का, पड़े रहने का मन करता है, यह सब अप्रवृत्ति का काम है।
(3) प्रमाद- न करने लायक काम में लग जाना और करने लायक कामों को न करना ही प्रमाद वृत्ति है, जैसे बीड़ी-सिगरेट, ताश-चौपड़ आदि कार्यों में लगना।
(4) मोह- भीतर में विवेक विरोधी भाव मोह वृत्ति है।
(5) सत्त्व, रज और तम ये तीनों गुण, सूक्ष्म होने से देखने में नहीं आते। इनका ज्ञान (पहचान) तो इनकी वृत्तियों से होता है, क्योंकि वृत्तियाँ स्थूल होने से इन्द्रियों और अन्तःकरण का विषय हैं।
(6) इनको दूर करने का उपाय है कि साधक इनको अपने में कभी माने ही नहीं। विकार सदैव रहते हैं और स्वयं निरन्तर निर्विकार रहता है। क्रोधादि विकार अपने में नहीं, मन-बुद्धि में आते हैं। यदि वह इन्हें अपने में न माने, तो इनसे माना हुआ सम्बन्ध मिट जाता है, फिर वे विकार स्वतः मिट जाते हैं।
यदि इससे भी न मिटें, तो असहाय स्थिति में कृष्ण को मदद के लिये पुकारें।
बढ़े हुए गुणों की वृत्तियों का फल क्या होता है, इसे आगे के दो श्लोकों में बताते हैं।