Bhagavad Gita 14.26: Verse 26
मां च योऽव्यभिचारेण भक्ितयोगेन सेवते।
स गुणान्समतीत्यैतान् ब्रह्मभूयाय कल्पते।।14.26।।
भावार्थ - Gist
जो मनुष्य हर परिस्थिति में बिना विचलित हुए अनन्य-भाव से मेरी भक्ति में स्थिर रहता है, वह भक्त प्रकृति के तीनों गुणों को अति-शीघ्र पार करके ब्रह्म-पद पर स्थित हो जाता है।।14.26।।
He who worships Me with unwavering devotion, transcends there three modes of nature and becomes worthy of attaining Brahma (Supreme Divinity).
व्याख्या - Explanation
(1) यद्यपि कृष्ण ने गुणों का अतिक्रमण करने का उपाय श्लोक 14.19 में बता दिया था, पर (14.21 में) अर्जुन के प्रश्न से ऐसा प्रतीत होता है कि वह कोई दूसरा उपाय भी जानना चाहते हैं।
(2) ‘अव्यभिचारेण’ पद का तात्पर्य है कि दूसरे किसी का सहारा न हो। सांसारिक सहारा तो दूर रहा, ज्ञानयोग, कर्मयोग आदि योगों का भी सहारा न हो। ‘भक्तियोगेन’ पद का तात्पर्य है- केवल कृष्ण का ही सहारा हो, बल हो, विश्वास हो। इस तरह अव्यभिचारेण पद से दूसरों का आश्रय लेने का निषेध करके भक्तियोगेन पद से केवल कृष्ण का ही आश्रय लेने की बात कही है।
(3) ‘सेवते’ – सेवन करता है अर्थात् कृष्ण का ही भजन करता है, उनकी उपासना करता है, उनके ही शरण है और उनके अनुकूल चलता है।
(4) जो अनन्य भाव से केवल कृष्ण के ही शरण हो जाता है, उसको गुणों का अतिक्रमण करना नहीं पड़ता, प्रत्युत कृष्ण की कृपा से स्वतः गुणों का अतिक्रमण हो जाता है।