Bhagavad Gita 2.38: Verse 38
सुखदुःखे समे कृत्वा लाभालाभौ जयाजयौ ।
ततो युद्धाय युज्यस्व नैवं पापमवाप्स्यसि ॥2.38॥
भावार्थ - Gist
जय-पराजय, लाभ-हानि और सुख-दुख को समान समझकर, उसके बाद युद्ध के लिए तैयार हो जा, इस प्रकार युद्ध करने से तू पाप को नहीं प्राप्त होगा॥2.38॥
Treating alike victory or defeat, profit or loss, joy or sorrow, alike engages in battle. This way you will not be touched by sin.
व्याख्या - Explanation
31 से 38 वें श्लोक तक कृष्ण ने कुछ विशेष भाव प्रकट किये हैं-
(1) यहाँ कृष्ण ने अर्जुन की दलीलों का समाधान दिया है। 1.31में अर्जुन ने कहा है- ‘युद्ध में मैं अपना कल्याण नहीं देखता हूँ।’ भगवान् कहते हैं- क्षत्रिय के लिये धर्ममय युद्ध से बढ़कर कोई कल्याण का साधन नहीं है। 1.37 में अर्जुन ने कहा है- ‘युद्ध करके हम सुखी कैसे रहेंगे।’ भगवान् कहते हैं- जिन क्षत्रियों को ऐसा युद्ध मिल जाता है, वे ही सुखी हैं। अर्जुन कहते हैं- ‘युद्ध से नरक की प्राप्ति होगी’ (1.44)। भगवान् कहते हैं- युद्ध से स्वर्ग की प्राप्ति होगी। आदि।
(2) अपने मन के आग्रह को छोड़े बिना कल्याण नहीं होता। अर्जुन युद्ध की अपेक्षा भिक्षा से निर्वाह करना श्रेयस्कर समझता है। भगवान् ने युद्ध की आज्ञा दी। उद्धव के मन में कृष्ण के साथ रहने की इच्छा थी, तो भगवान् कृष्ण ने उन्हें उत्तराखण्ड में जाकर तप करने की आज्ञा दी।
धर्म क्या है? यमराज भागवतम् के छठे स्कन्ध में कहते हैं कि वास्तविक धर्म कृष्ण की प्रेमा भक्ति है, उनकी शरणागति है।
(3) गीता एक ऐसा अनोखा ग्रंथ है जो यह कहती है- आप जहाँ हैं, जिस मत को मानते हैं, जिस सिद्धान्त को मानते हैं, जिस धर्म, सम्प्रदाय, वर्ण, आश्रम आदि को मानते हैं, उसी को मानते हुए गीता के अनुसार चलें, तो कल्याण हो जायेगा। ऋषि-मुनियों की तरह वर्षों तक एकान्त में घोर तपस्या करनी है, तो उससे भी कल्याण हो जायेगा, यदि उसे करें- गीता के अनुसार। गृहस्थ रहकर कल्याण करना चाहते हैं, तो वह भी अवष्य ही सम्भव है। सिद्धि-असिद्धि में सम रहकर निष्कामभाव पूर्वक कर्तव्य कर्म करें, कल्याण निश्चित है।
(4) जब युद्ध जैसी घोर परिस्थिति और प्रवृत्ति में मनुष्य अपना कल्याण कर सकता है, फिर कौनसी परिस्थिति और प्रवृत्ति में नहीं कर सकता है?
(5) अर्जुन न स्वर्ग चाहते थे और न राज्य चाहते थे। वे केवल युद्ध से होने वाले पाप से बचना चाहते थे। कृष्ण उन्हें बताते हैं कि युद्ध करना पाप लगने में हेतु नहीं है, प्रत्युत पाप का कारण तो पक्षपात, कामना, स्वार्थ और अहंकार है। युद्ध तो तेरा कर्तव्य है, किन्तु कर उसे जय-पराजय में सम रहकर, सुख-दुःख में सम रहकर, लाभ-हानि में सम रहकर।
In shlokas 31 to 38 Krsna has expressed some ideas of great significance-
In whichever field of life man finds himself, he can attain bliss and salvation if he remains calm and unmoved in both success or failure, victory or defeat, profit or loss, joy or sorrow. Arjun desired neither the kingdoms of this world nor the delights of heaven. He only wished to escape from the sin (of destroying human lives) in battle. But Krishna insists that no sin attaches to the warrior who, regardless of victory or defeat, engages in the battle of righteousness (Dharma) as his ultimate duty.