Bhagavad Gita 2.40: Verse 40
यनेहाभिक्रमनाशोऽस्ति प्रत्यवातो न विद्यते ।
स्वल्पमप्यस्य धर्मस्य त्रायते महतो भयात् ॥2.40॥
भावार्थ - Gist
इस कर्मयोग में आरंभ का अर्थात बीज का नाश नहीं है और उलटा फलरूप दोष भी नहीं है, बल्कि इस कर्मयोग रूप धर्म का थोड़ा-सा भी साधन जन्म-मृत्यु रूप महान भय से रक्षा कर लेता है॥2.40॥
In this world the exalted state of (freedom from desires andreactions – samata) equanimity is neither ever destroyed nor does it lead to adverse results . Slight effort in this direction (towards equanimity) would rescue a person from great fears.
व्याख्या - Explanation
समता सम्बन्धी विषेष बात-
(1) यदि मन नहीं लगे, तो राम-राम करने से क्या लाभ? -ऐसा सबके मन में बैठा हुआ है। किन्तु गीता की दृष्टि में मन लगना कोई ऊँची चीज नहीं है। मन तो अक्सर भौतिक चीजों में भी लग जाता है, जैसे कि क्रिकेट देखने में, या अपने प्रेमी के प्रति भी विशेष मन लग जाता है, पर क्या इनसे कल्याण होता है ?
गीता की दृष्टि में ऊँची चीज है- समता। दूसरे लक्षण आयें या न आयें, पर समता आ जाये, तो गीता उस मनुष्य को सिद्ध कह देती है।
(2) समता की महिमा 39ए वं 40वें श्लोकों में चार प्रकार से कही गयी है-
(क) कर्म बन्धन से मुक्त हो जाना।
(ख) इसके आरम्भ का नाश नहीं होता।
(ग) इसके अनुष्ठान का फल उल्टा नहीं होता।
(घ) इसका थोड़ा सा भी अनुष्ठान महान भय से रक्षा कर लेता है।
Some important things about (samata) equanimity
I. Freedom from bondage
II. It never is destroyed
III. Its practice doesn’t lead to adverse results
IV. Its slight practice would save us from great fears.