Bhagavad Gita 2.61: Verse 61
तानि सर्वाणि संयम्य युक्त आसीत मत्परः ।
वशे हि यस्येन्द्रियाणि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता ॥2.61॥
भावार्थ - Gist
इसलिए साधक को चाहिए कि वह उन सम्पूर्ण इन्द्रियों को वश में करके समाहित चित्त हुआ मेरे परायण होकर ध्यान में बैठे क्योंकि जिस पुरुष की इन्द्रियाँ वश में होती हैं, उसी की बुद्धि स्थिर हो जाती है॥2.61॥
A Karmyogi( seeker on the path of Karma-Yoga) after controlling all the senses should surrender and commit himself totally to me. The one whose senses are under control is a person of stable intellect.

व्याख्या - Explanation
1. रोगी, जिसमें भोजन लेने की सामर्थ्य नहीं है, वह भी भोजन का त्याग कर देता है। किन्तु यदि उसकी पसन्दीदा मिठाई सामने आ जाये, तो वह सोचेगा कि- ‘मैं ठीक हो जाऊँ, फिर भरपेट खाऊँगा।’ मिठाई के प्रति उसका रस तो सदैव बना हुआ था, उसकी निवृति नहीं हुई थी। रस है क्या?
लोभी व्यक्ति को रुपये मिल जायें, कामी व्यक्ति को यदि स्त्री मिल जाये तो भीतर ही भीतर एक खुषी आती है, यही रस है।
2. जब तक अन्तःकरण में सांसारिक भोगों की महत्ता रहती है, परमात्मा का अलौकिक रस प्राप्त नहीं होता है, तब तक उनकी प्राप्ति का निष्चय ही नहीं हो पाता है। किन्तु जब हम भगवान् के लिये काम करने लगें, तो उससे जो अलौकिक रस प्राप्त होगा, उसके आगे सांसारिक पदार्थों का रस बहुत ही फीका पड़ जायेगा। तत्त्व बोध से समझ आयेगा कि यह सांसारिक पदार्थों का रस ठहरने वाला नहीं है, कल्याण में बाधक है। अतः कल्याण के रस के आगे यह भौतिक पदार्थों का रस फीका हो जायेगा।
3 रस मन को होता है। रस को दूर करने के लिये मनुष्य को इन्द्रियों को वश में रखना बड़ा ही आवष्यक है। इतना ही नहीं, उसे मन भी परमात्मा में लगाना होगा (मेरे परायण होकर बैठे)। इन्द्रियों के संयम में उसे जो भी सफलता मिली है, उसके लिये अपने उद्योग को कारण न मानकर सारा श्रेय भगवान् को देने से ही रस की निवृति होगी। अन्यथा इन्द्रियों का सर्वथा वश में होना कठिन है। भगवान् के परायण न होकर विषयों की निवृति के बारे में सोचने से विषयों में रस दूर नहीं हो पायेगा।
4. भगवान् के परायण होने से तात्पर्य है कि भगवान् में ही महत्त्वबुद्धि हो, कि भगवान् ही मेरे हैं और मैं भगवान् का ही हूँ; संसार मेरा नहीं है और मैं संसार का नहीं हूँ। कारण कि भगवान् हरदम मेरे साथ हैं और संसार मेरे साथ रहता ही नहीं। इसलिये साधक का मन केवल भगवान् में ही लगा रहे।
5. गीता का अध्ययन करने से प्रतीत होता है कि किसी भी साधन की सफलता में मनुष्य के पुरुषार्थ के बजाय भगवत्कृपा ही कारण है। गीता में भगवत्कृपा की महिमा बहुत कही गयी है, जैसे- ‘जितने भी योगी हैं, उन सब योगियों में श्रद्धापूर्वक मेरे परायण होकर, मेरा भजन करने वाला योगी सर्वश्रेष्ठ है।’ (6.47)
सारांश यह है कि संसार में रस रखना अपने को शरीर मानने के कारण है। ये (शरीर, मन, बुद्धि, इन्द्रियाँ और पदार्थ आदि) सब हमेशा बदल रहे हैं, इनसे प्राप्त भावना बदलती रहेगी, स्थायी सुख मिल नहीं सकता, दुःख मिले बिना रह नहीं सकता। इस सब की बस एक ही जड़ है- जो हम हैं, उसे न जानना; जो हमारा है, उसे अपना नहीं मानना और जो हमारा नहीं है, उसे अपना मानना।
A patient who is incapable of eating also renounces food but when he sees a sweet which he really likes he eagerly waits to get well quickly so that he can eat that sweet to his heart’s content. He always had a taste for the sweet and that taste had not gone.
What is inclination?