Bhagavad Gita 3.13: Verse 13
यज्ञशिष्टाशिनः सन्तो मुच्यन्ते सर्वकिल्बिषैः।
भुञ्जते ते त्वघं पापा ये पचन्त्यात्मकारणात्।।3.13।।
भावार्थ - Gist
यज्ञ से बचे हुए अन्न को खाने वाले श्रेष्ठ पुरुष सब पापों से मुक्त हो जाते हैं और जो पापी लोग अपना शरीर-पोषण करने के लिए ही अन्न पकाते हैं, वे तो पाप को ही खाते हैं॥2.13॥
The most superior persons, experiencing the remains of yagya get freedom from all sins. But those sinners who cook only for themselves eat sins only.

व्याख्या - Explanation
मनुष्य के पास शरीर, योग्यता, पद, अधिकार, विद्या आदि जो कुछ है, वह सब मिला हुआ है और बिछुड़ने वाला है। वह अपना और अपने लिये नहीं है, प्रत्युत दूसरों की सेवा के लिये है।
मिली हुई चीज को दूसरे की सेवा में लगा दिया, तो अपने घर का क्या खर्च हुआ। मुफ्त में कल्याण हो गया। कृष्ण कहते हैं कि इससे पापों से मुक्ति प्राप्त हो जाती है। भक्त सभी चीजों को कृष्ण की मानता है। जो भी वस्तु हमें प्राप्त होती है, वह कृष्ण की कृपा से ही हमारे द्वारा उनका समुचित उपयोग करने के लिये प्राप्त होती है। अतः उसको उनकी सेवा में लगा दें, तो दिल में उनके प्रति प्रेम बढ़ेगा। पर यदि हम (भोग बुद्धि से) अपने लिये ही कर्म करते हैं, तो पाप को ही खाते हैं।
इसको दूसरे ढंग से देखें, तो जो कुछ भी हम खायें, यदि श्रीकृष्ण को अर्पण करने के बाद प्रसाद के रूप में खायेंगे, तो पापों से मुक्ति होगी। इसी तरह जो भी पकायंे, उसे इस भाव से पकायें कि यह मैं भगवान् के लिये पका रहा हूँ। उस भोजन का असर ही बदल जायेगा।