Bhagavad Gita 3.34: Verse 34
इन्द्रियस्येन्द्रियस्यार्थे रागद्वेषौ व्यवस्थितौ।
तयोर्न वशमागच्छेत्तौ ह्यस्य परिपन्थिनौ।।3.34।।
भावार्थ - Gist
इन्द्रिय-इन्द्रिय के अर्थ में अर्थात प्रत्येक इन्द्रिय के विषय में राग और द्वेष छिपे हुए स्थित हैं। मनुष्य को उन दोनों के वश में नहीं होना चाहिए क्योंकि वे दोनों ही इसके कल्याण मार्ग में विघ्न करने वाले महान् शत्रु हैं॥3.34॥
Attachment and aversion are ever present in the interaction of senses with their particular objects, under the dispension of favourable and unfavourable circumstances. Man must not let himself be overpowered by either one, because both of them are impediments in the path of his spiritual progress.
व्याख्या - Explanation
1. प्रत्येक इन्द्रिय को अपने विषय की अनुकूलता, प्रतिकूलता की मान्यता से अच्छा, बुरा लगता है अर्थात् इन्द्रियों के विषयों में राग-द्वेष स्थित रहते हैं। यदि विषय में अनुकूलता का भाव हो, तो राग हो जाता है और प्रतिकूलता का भाव होने पर द्वेष हो जाता है। किन्तु विषय स्वयं अनुकूल, प्रतिकूल नहीं होते। मनुष्य को इन दोनों के ही वष में नहीं होना चाहिये- ऐसा कृष्ण यहाँ बताते हैं। क्यों?
2. राग-द्वेष के वषीभूत होकर कर्म करने से राग-द्वेष पुष्ट होते हैं और अषुद्ध स्वभाव पैदा होता है। अतः राग-द्वेष के वश में होकर कोई कर्म न करें- यही उपाय यहाँ बताया गया है।
3. राग-द्वेष के बारे में दो महत्त्वपूर्ण बातें जान लें-
(क) हम जिसको सुख देने वाला मानते हैं, उसमें राग हो जाता है और जिसको दुःख देने वाला मानते हैं, उससे द्वेष हो जाता है। अतः राग-द्वेष का कारण हमारा मन है, कोई दूसरा नहीं, कोई वस्तु नहीं।
(ख) अगर मन-बुद्धि में राग-द्वेष पैदा हो जायँ, तो उसके वषीभूत होकर क्रिया करने से वह दोष और दृढ़ हो जायेगा और क्रिया न करने से एक उत्साह पैदा होगा। जैसे किसी ने हमसे कोई कड़वी बात कह दी, पर हमें क्रोध नहीं आया, तो हमारे भीतर एक प्रसन्नता होगी। परन्तु इसमें अपना बल न मानकर भगवान् की कृपा माननी चाहिये कि उनकी कृपा से हम बच गये, नहीं तो इसके वषीभूत हो जाते।