Bhagavad Gita 6.35: Verse 35
श्रीभगवानुवाच
असंशयं महाबाहो मनो दुर्निग्रहं चलं।
अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येण च गृह्यते।।6.35।।
भावार्थ - Gist
श्रीभगवान् बोले- हे महाबाहो ! यह मन बड़ा चंचल है (और) इसका निग्रह करना भी बड़ा कठिन है- यह तुम्हारा कहना बिल्कुल ठीक है। परन्तु हे कुन्तीनन्दन ! अभ्यास और वैराग्य के द्वारा (इसका) निग्रह किया जाता है। ॥6.35॥
Krishn answered- O mighty warrior Arjun! The mind is very restless and to control it is also very difficult–in saying this you speak truly. But O son of Kunti! With practice and renunciation it can be controlled.

व्याख्या - Explanation
(1) यहाँ महाबाहो सम्बोधन का तात्पर्य शूरवीरता बताने में है अर्थात् अभ्यास करते हुए उकताना नहीं चाहिये।
(2) कुन्ती ने भगवान् श्रीकृष्ण से विपत्तियों का वरदान माँगा था। भागवतम् 1.8.25 में कुन्ती महारानी ने श्रीकृष्ण से कहा था- मैं चाहती हूँ कि हमें विपत्तियाँ बार-बार आयें, जिससे हमें बार-बार आपके दर्शन होवें और आपका दर्शन जन्म-मृत्यु से छुटकारा दिलाने वाला है।
(3) मन को बार-बार ध्येय में लगाने का नाम ‘अभ्यास’ है। यह अभ्यास रोज, निरन्तर करने से ध्येय में आदर और महत्त्व बुद्धि होने पर अभ्यास दृढ़ होता है।
(4) अभ्यास की सहायता के लिये वैराग्य की आवश्यकता होती है। कारण कि संसार के भोगों का राग हटे बिना मन भगवान् में लगेगा नहीं। अतः संस्कारों के कारण मन में कभी कोई स्फुरणा हो भी जाये, तो उसकी उपेक्षा कर दे, अर्थात् उसमें राग-द्वेष न करे। इस तरह अभ्यास और वैराग्य से मन का निग्रह हो जाता है, मन पकड़ा जाता है।