Bhagavad Gita 8.6: Verse 6
यं यं वापि स्मरन्भावं त्यजत्यन्ते कलेवरम्।
तं तमेवैति कौन्तेय सदा तद्भावभावितः।।8.6।।
भावार्थ - Gist
हे कुन्तीपुत्र अर्जुन ! (मनुष्य) अन्तकाल में जिस-जिस भी भाव का स्मरण करते हुए शरीर छोड़ता है, वह उस (अन्तकाल के) भाव से सदा भावित होता हुआ, उस-उसको ही प्राप्त होता है अर्थात् उस-उस योनि में ही चला जाता है। ॥8.6॥
O son of Kunti! Whichever object of desire or concern a man dwells upon in his last moment of life before quitting this body, being constantly influenced by that emotional state he finally attains to that very state, i.e. he enters that particular life-form (yoni).
व्याख्या - Explanation
1) इस बताये हुए नियम से कृष्ण की बहुत ही विशेष कृपा झलकती है। इस नियम के अन्तर्गत तो जिस मूल्य में (अर्थात् अन्त समय के भाव के अनुसार) कुत्ते की योनि मिलती है, उसी मूल्य में कृष्ण अपने आपको देने के लिए तैयार हैं।
2) अन्तकाल में जिस किसी भाव का चिन्तन होता है, अन्य शरीर धारण करने तक जीव उसी भाव से भावित रहता है। उसी भाव के अनुसार ही वह अन्य शरीर धारण करता है, क्योंकि उस चिन्तन को बदलने का मौका ही उपलब्ध नहीं होता। अन्त समय में कोई कुत्ते से प्रेम करने वाला यदि कुत्ते का स्मरण करता है तो उसका अगला शरीर कुत्ते का ही बनता है। परन्तु इसका तात्पर्य यह नहीं है कि यदि अन्तिम चिन्तन मकान का होगा तो वह मकान बन जायेगा, धन को याद करते हुए शरीर छोड़ेगा, तो धन बन जायेगा। चेतन तो चेतन ही रहेगा, वह जड़ कैसे हो सकता है ? हाँ, यदि अन्तिम चिन्तन मकान का हो, तो वह उस मकान में चूहा, छिपकली आदि बन जायेगा और धन के चिन्तन से साँप बन सकता है।
3) जिसका जैसा स्वभाव होता है, अन्तकाल में वैसा ही चिन्तन होता है। कुत्ता पालने के स्वभाव वाले को कुत्ते का चिन्तन होता है।
4) क्योंकि मृत्यु का कोई पता नहीं, कि कब आ जाये, इसलिये स्वभाव को सदैव निर्मल बनाये रखना चाहिये और हर समय सावधान रहकर कृष्ण का नित्य निरन्तर स्मरण करते रहना चाहिये।
5) यह मनुष्य शरीर की महत्ता है कि वह जो चाहे, वही पा सकता है। ऐसा कोई दुर्लभ पद नहीं है, जो मनुष्य को नहीं मिल सके। परन्तु मनुष्य भोग और संग्रह में लगकर चौरासी लाख योनियों में एवं नरकों में चला जाता है।