Bhagavad Gita 9.13: Verse 13
महात्मानस्तु मां पार्थ दैवीं प्रकृतिमाश्रिताः।
भजन्त्यनन्यमनसो ज्ञात्वा भूतादिमव्ययम्।।9.13।।
भावार्थ - Gist
परंतु हे कुन्तीपुत्र! दैवी प्रकृति के (इसका विस्तारपूर्वक वर्णन गीता अध्याय 16 श्लोक 1 से 3 तक में देखना चाहिए) आश्रित महात्माजन मुझको सब भूतों का सनातन कारण और नाशरहित अक्षरस्वरूप जानकर अनन्य मन से युक्त होकर निरंतर भजते हैं॥9.13॥
But O son of Pritha! Great souls, (mahatma) who take refuge in divine nature, knowing Me as the sole prime cause of the entire creation; worship Me constantly with an undivided mind.
व्याख्या - Explanation
1) दैवी सम्पत्ति में देव नाम कृष्ण का है और कृष्ण की सम्पत्ति दैवी सम्पत्ति कहलाती है। कृष्ण सत् हैं, अतः भगवान् की प्राप्ति कराने वाले जितने गुण और आचरण हैं, उनके साथ सत् शब्द लगता है अर्थात् वे सद्गुण और सदाचार कहलाते हैं। इसलिये दैवी प्रकृति का आश्रय लेना भी कृष्ण का आश्रय लेना है।
2) एक खोज होती है और एक उत्पत्ति होती है। खोज नित्यतत्त्व की होती है, जो पहले से ही है। उत्पत्ति जिस वस्तु की होती है, वह नष्ट होने वाली होती है। सद्गुण, सदाचार, उनको धारण करना, उनका आश्रय लेना खोज है। जो इन गुणों को अपने पुरुषार्थ के द्वारा उपार्जित मानता है अर्थात् इन्हें स्वाभाविक न मानकर अपने बनाये हुए मानता है, उसको इन गुणों का अभिमान हो जाता है। यह अभिमान ही वास्तव में प्राणी की व्यक्तिगत उपज है, जो नष्ट होने वाली है।
3) जब मनुष्य दैवी सम्पत्ति के गुणों को अपने बल के द्वारा उपार्जित मानता है, जैसे मैं सत्य बोलता हूँ, दूसरे सत्य नहीं बोलते, इस प्रकार दूसरों की अपेक्षा अपने में विशेषता देखता है तब उसमें इन गुणों का अभिमान आ जाता है। परन्तु इन गुणों को केवल कृष्ण के ही गुण मानने से और भगवत्स्वरूप समझकर इनका आश्रय लेने से अभिमान पैदा नहीं होता।
4) मनुष्य में दैवी सम्पत्ति तभी प्रकट होती है, जब उसका उद्देश्य भगवत्प्राप्ति का होता है। इन गुणों का आश्रय लेकर ही वह कृष्ण की ओर बढ़ सकता है। इनका आश्रय लेने से उसमें अभिमान नहीं आता प्रत्युत नम्रता, सरलता, निरभिमानता आती है और साधन में नित्य नया उत्साह आता है।
5) कृष्ण का यह कहना कि- ‘मैं सम्पूर्ण प्राणियों का आदि हूँ और अविनाशी हूँ’ का तात्पर्य है कि सृष्टि के पूर्व में भी मैं था और प्रलय के बाद भी मैं रहूँगा, ऐसा मैं आदि, अनन्त हूँ।
6) अनन्य मन वाला वह होता है, जिसके मन में अन्य का आश्रय नहीं है, सहारा नहीं है, भरोसा नहीं है, आकर्षण नहीं है और केवल कृष्ण से ही अपनापन है।
7) कृष्ण का भजन किसी भी तरह किया जाये, उससे लाभ ही होता है, पर कृष्ण ही मेरे हैं और मैं कृष्ण का ही हूँ- इस अनन्य भाव से उनसे सम्बन्ध जोड़कर थोड़ा भी भजन किया जाये, तो बहुत लाभ होता है। जिसने यह मान लिया है कि कृष्ण ही मेरे है और मैं कृष्ण का ही हूँ, वह अपने आपको उनके चरणों में अर्पित करके जो कुछ भी करता है, वह कृष्ण की प्रसन्नता के लिये ही होता है – यही उसका अनन्य मन से भजन करना है।