Bhagavad Gita 9.14: Verse 14
सततं कीर्तयन्तो मां यतन्तश्च दृढ़व्रताः ।
नमस्यन्तश्च मां भक्त्या नित्ययुक्ता उपासते ॥9.14॥
भावार्थ - Gist
वे दृढ़ निश्चय वाले भक्तजन निरंतर मेरे नाम और गुणों का कीर्तन करते हुए तथा मेरी प्राप्ति के लिए यत्न करते हुए और मुझको बार-बार प्रणाम करते हुए सदा मेरे ध्यान में युक्त होकर अनन्य प्रेम से मेरी उपासना करते हैं॥9.14॥
The men who are constantly chanting My names and glories, striving purposefully and eagerly to reach their goal, worship Me with steadfast devotion, prostrating themselves before Me.

व्याख्या - Explanation
1) मनुष्य मात्र कृष्ण में ही हरदम लगे रह सकते हैं, सांसारिक भोग संग्रह में नहीं। कारण कि समय-समय पर भोगों से ग्लानि होती है और संग्रह से उपरति होती है। परन्तु भगवत्प्राप्ति का उद्देश्य एक दृढ़ विचार होता है, उसमें कभी फर्क नहीं पड़ता।
जैसे कि मैं अमुक का लड़का हूँ- यह भाव सदा ही बना रहता है, क्योंकि मैं अमुक का लड़का हूँ- यह भाव उसके मैं-पन में बैठ गया है। ऐसे ही मनुष्य का भगवान् के साथ जो स्वयं का सम्बन्ध है (मैं भगवान् का हूँ और भगवान् मेरे हैं), वह जाग्रत्, स्वप्न और सुषुप्ति सभी अवस्थाओं में बना रहता है, कभी खण्डित नहीं होता है। कृष्ण के साथ अपने इस प्रकार के सम्बन्ध को जान लेना ही नित्ययुक्त रहना है।
2) जिन्होंने भीतर से ही अपने मैं पन को बदल दिया है, कि हम कृष्ण के हैं और कृष्ण हमारे हैं, उनका यह दृढ़ निश्चय हो जाता है कि हम संसार के नहीं हैं और संसार हमारा नहीं है। अतः हमें सांसारिक भोग और संग्रह की तरफ जाना ही नहीं है।
3) भक्त कभी कृष्ण के नाम का प्रेमपूर्वक कीर्तन करते हैं, कभी नाम जप करते हैं, कभी पाठ करते हैं, कभी भगवत् सम्बन्धी बातें सुनाते हैं। वे जो कुछ वाणी सम्बन्धी क्रियाएँ करते हैं, वह सब कृष्ण का स्तोत्र ही होता है।