Bhagavad Gita 9.22: Verse 22
अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जनाः पर्युपासते ।
तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम् ॥9.22॥
भावार्थ - Gist
जो अनन्य भक्त मेरा चिन्तन करते हुए (मेरी) भली भाँति उपासना करते हैं, (मुझमें) निरन्तर लगे हुए उन भक्तों का योगक्षेम (अप्राप्त की प्राप्ति और प्राप्त की रक्षा) मैं वहन करता हूँ। ॥9.22॥
For My exclusive devotees who worship Me wholeheartedly, thinking of none but Me, to those devotees constantly engaged in Me, I provide both gain and security.
व्याख्या - Explanation
1) जो कुछ देखने, सुनने औैर समझने में आ रहा है, वह सब का सब कृष्ण का स्वरूप ही है और उसमें जो कुछ परिवर्तन हो रहा है, वह सब कृष्ण की लीला है- ऐसा जो दृढ़ता से मान लेते हैं, उनकी कृष्ण के सिवाय कहीं भी महत्त्वबुद्धि नहीं रह जाती, वे ‘अनन्य‘ भक्त हैं।
2) अनन्य का दूसरा भाव है कि साधक का साधन, साध्य और धन केवल कृष्ण हैं अर्थात् केवल कृष्ण के ही शरण होना है, उन्हीं का चिन्तन करना है, उन्हीं को प्राप्त करना है- ऐसा उनका दृढ़ भाव हो जाता है।
3) अप्राप्त वस्तु की प्राप्ति करा देना योग है और प्राप्त वस्तु की रक्षा करना क्षेम है। कृष्ण कहते हैं कि मेरे में नित्य निरन्तर लगे हुए भक्तों का योगक्षेम मैं वहन करता हूँ।
4) यदि भक्त की भक्ति बढ़ती हो, तो जो प्राप्त है, उसकी कृष्ण रक्षा करेंगे अन्यथा वे उस प्राप्त वस्तु को नष्ट कर देंगे। कृष्ण भक्त का हित ही देखते हैं। इसलिये भक्त अनुकूल और प्रतिकूल- दोनों परिस्थितियों में परम प्रसन्न रहते हैं। कारण कि परिस्थिति चाहे अनुकूल हो या प्रतिकूल, कृष्ण के द्वारा ही भेजी हुई है। जो कृष्ण के द्वारा दिया गया है, उसी में हमारा कल्याण है- भक्त की यह दृढ़ सोच होती है।