Bhagavad Gita 9.23: Verse 23
येऽप्यन्यदेवता भक्ता यजन्ते श्रद्धयान्विताः ।
तेऽपि मामेव कौन्तेय यजन्त्यविधिपूर्वकम् ॥9.23॥
भावार्थ - Gist
हे अर्जुन! यद्यपि श्रद्धा से युक्त जो सकाम भक्त दूसरे देवताओं को पूजते हैं, वे भी मुझको ही पूजते हैं, किंतु उनका वह पूजन अविधिपूर्वक अर्थात् अज्ञानपूर्वक है॥9.23॥
O Son of Kunti! Even those devotees who, with faith, worship other gods, in reality they also worship Me though not with a proper approach .
व्याख्या - Explanation
1) कृष्ण कहते हैं कि देवताओं का पूजन करने वाले वास्तव में मेरी ही पूजा करते हैं क्योंकि तत्त्व से मेरे सिवाय कुछ है ही नहीं। किन्तु है वह अविधिपूर्वक, क्योंकि वे देवताओं को मुझसे अलग मानते हैं। वास्तव में देवता तो मेरे ही स्वरूप हैं।
2) (क) इससे निष्कर्ष निकलता है कि यदि कामना रहित होकर किसी भी मनुष्य और देवता को भगवत्स्वरूप मानकर पूजा जाय, तो वह कृष्ण का ही पूजन होगा और उससे भगवत्प्राप्ति हो जायेगी।
(ख) किन्तु उपास्यरूप में साक्षात् कृष्ण हों, पर मन में यदि थोड़ी भी कामना हो, तो उपासक अर्थार्थी, आर्त आदि भक्तों की श्रेणी में आ जायेगा, जिसे कृष्ण ने (7.18 में) उदार कहा है।
(ग) यद्यपि समस्त उपासनाएँ भगवान् की उपासनाएँ ही हैं, किन्तु उपासक को लाभ तो अपनी अपनी भावना के अनुसार ही मिलता है।