Bhagavad Gita 9.26: Verse 26
पत्रं पुष्पं फलं तोयं यो मे भक्त्या प्रयच्छति ।
तदहं भक्त्युपहृतमश्नामि प्रयतात्मनः ॥9.26॥
भावार्थ - Gist
जो कोई भक्त मेरे लिए प्रेम से पत्र, पुष्प, फल, जल आदि अर्पण करता है, उस शुद्धबुद्धि निष्काम प्रेमी भक्त का प्रेमपूर्वक अर्पण किया हुआ वह पत्र-पुष्पादि मैं सगुणरूप से प्रकट होकर प्रीतिसहित खाता हूँ॥9.26॥
That devotee who offers Me with love a leaf, a flower, a fruit or even water, I accept these devout offerings of such a devotee whose inner self is completely absorbed in Me.
व्याख्या - Explanation
1) कृष्ण की अपरा प्रकृति के दो कार्य हैं- पदार्थ और क्रिया। मनुष्य भूल जाता है कि इन दोनों के मालिक कृष्ण हैं। इस भूल को दूर करने के लिये कृष्ण यहाँ कहते हैं कि पत्र, पुष्प, फल, जल आदि जो कुछ भी पदार्थ हैं और जो कुछ भी क्रियाएँ हैं (9.27), उन सबको मुझे अर्पण कर दो, तो तुम सदा के लिये आफत से छूट जाओगे (9.28)।
दूसरी बात- क्योंकि मेरा जीव के साथ स्वतः स्वाभाविक अपनेपन का सम्बन्ध है, इसलिये मेरी प्राप्ति में विधियों की मुख्यता नहीं है। जैसे बालक यदि माँ की गोद में जाये, तो उसमें किसी विधि की आवश्यकता नहीं होती, वह तो अपनेपन के सम्बन्ध से ही माँ की गोदी में जाता है। ऐसे ही मेरी प्राप्ति के लिये केवल अपनेपन की आवश्यकता है।
2) कृष्ण कहते हैं कि भक्त के द्वारा दिये गये उपहार को वे स्वीकार ही नहीं करते, अपितु खा लेते हैं अर्थात् आत्मसात् कर लेते हैं। भक्त में यदि देने का भाव आता है, तो कृष्ण में भी लेने का भाव आ जाता है। भक्त में खिलाने का भाव आता है तो कृष्ण को भूख लग जाती है।
3) भक्त का जब देने का भाव बहुत बढ़ जाता है, तो वह भूल जाता है कि वह क्या दे रहा है। तब कृष्ण भी भूल जाते हैं कि वे क्या ले रहे हैं। जैसे- विदुरानी जी प्रेम के आवेश में कृष्ण को केले के छिलके खिला रही थी, तो कृष्ण भी बड़े प्रेम से छिलके ही खा रहे थे।
4) इस श्लोक में पदार्थ की मुख्यता नहीं है, प्रत्युत भाव की मुख्यता है। कृष्ण भाव के भूखे हैं, पदार्थों के नहीं। अतः भक्त का भाव भक्तिपूर्ण होना चाहिये। फिर वस्तु छोटी हो या बड़ी, साधारण हो या कीमती, उसको अर्पण करने में भक्त को असीम आनन्द का अनुभव होता है।
5) भोग लगाने पर जिन वस्तुओं को कृष्ण स्वीकार कर लेते हैं, उन वस्तुओं में विलक्षणता आ जाती है, उनका स्वाद बढ़ जाता है, सुगंध आने लगती है, वे चीजें कई दिनों तक खराब नहीं होती आदि-आदि। मनुष्य जब पदार्थों की आहुति देते हैं, तो वह यज्ञ हो जाता है, जब चीजों को दूसरों को देते हैं, तो वह दान कहलाता है, संयमपूर्वक अपने काम में न लेने से तप हो जाता है, और कृष्ण को अर्पण करने से कृष्ण के साथ योग हो जाता है।