Bhagavad Gita 9.27: Verse 27
यत्करोषि यदश्नासि यज्जुहोषि ददासि यत् ।
यत्तपस्यसि कौन्तेय तत्कुरुष्व मदर्पणम् ॥9.27॥
भावार्थ - Gist
हे अर्जुन! तू जो कर्म करता है, जो खाता है, जो हवन करता है, जो दान देता है और जो तप करता है, वह सब मेरे अर्पण कर॥9.27॥
O son of Kunti! Whatever you do, whatever you eat, whatever you offer in sacrifice, whatever you give as charity, whatever you do, by way of penance, dedicate it all to Me.

व्याख्या - Explanation
1) कृष्ण ने कहा है कि जो जिस प्रकार से मेरी शरण में आता है, उसको मैं वैसे ही आश्रय देता हूँ (4.11)। भक्त मुझे यदि प्रेम से कोई वस्तु अर्पण करता है, तो मैं उसे कई गुणा करके देता हूँ। परन्तु जो अपने आपको मुझे अर्पण कर देता है, उसको मैं अपने आपको दे देता हूँ। कृष्ण ने प्राणी को करनेे की स्वतन्त्रता दे रखी है, परन्तु मनुष्य यदि उस स्वतन्त्रता को मेरे को अर्पण कर देता है, तो वे उसके आधीन हो जाते हैं। इसलिये यहाँ कृष्ण अर्जुन को अपनी उस स्वतन्त्रता को उनको अर्पण करने को कह रहे हैं।
2) इस पद में हर प्रकार की क्रियाओं को कृष्ण उन्हें अर्पण करने को कहते हैं अर्थात् खुद को ही अर्पण करने को कह रहे हैं। यदि मनुष्य ऐसा करता है तो उसका कल्याण हो जायेगा (9.28)।
3) 9.26 में कृष्ण ने पत्र, पुष्प, फल, जल आदि अर्पण करने का कहा है, जिनको प्राप्त करने में श्रम बहुत ही कम होता है, फिर भी उन्हें प्राप्त करने में और अर्पण करने में कुछ तो उद्योग करना ही होता है, परन्तु इस श्लोक में तो और भी विलक्षण बात कही है कि कोई नया पदार्थ नहीं देना है, कोई नयी क्रिया नहीं करनी है, प्रत्युत हमारे द्वारा जो स्वाभाविक क्रियाएँ होती हैं, उनको कृष्ण को अर्पण करना है। अर्थात् किसी वस्तु या क्रिया विशेष को कृष्ण को अर्पण करने की आवश्यकता नहीं है, प्रत्युत खुद को ही अर्पण करने की जरूरत है।
खुद अर्पित होने से सब क्रियाएँ स्वाभाविक ही भगवान् के अर्पण हो जायेंगी, कृष्ण की प्रसन्नता की हेतु हो जायेंगी।
4) वस्तु को त्यागने की अपेक्षा किसी की सेवा में लगाना सुगम है। फिर जो परम प्रेमास्पद कृष्ण हैं, उनको अर्पण करने की सुगमता का तो कहना ही क्या। दूसरी बात- त्यागी को त्याग का अभिमान आ सकता है, किन्तु अर्पण करने वाले को अभिमान नहीं आ सकता, क्योंकि जिसकी वस्तु है, उसी को दे देने से अभिमान कैसे आयेगा ?