Bhagavad Gita 13.10: Verse 10
मयि चानन्ययोगेन भक्तिरक्व्यभिचारिणी।
विविक्तदेशसेवित्वमरतिर्जनसंसदि।।13.10।।
भावार्थ - Gist
मुझमें अनन्ययोग के द्वारा अव्यभिचारिणी भक्ति का होना, एकान्त स्थान में रहने का स्वभाव होना और जन-समुदाय में प्रीति का न होना।
Unswerving devotion towards Me through single-minded devotional practice, inclination for staying in solitary places, and not having attachment for worldly people.
व्याख्या - Explanation
16) मुझमें अनन्ययोग के द्वारा अव्यभिचारिणी भक्ति- संसार का आश्रय लेने के कारण साधक का देहाभिमान बना रहता है। यह अनन्य भक्ति से सुगमता पूर्वक दूर हो जाता है। केवल कृष्ण का ही सहारा हो, किसी भी मनुष्य, गुरु, देवता, शास्त्र आदि से मुझे कृष्ण की प्राप्ति हो जायेगी- इस प्रकार का सहारा बिल्कुल न हो, यही अनन्ययोग है। साधक का सम्बन्ध केवल कृष्ण के साथ ही हो, दूसरे किसी के साथ भी किंचिन्मात्र भी सम्बन्ध न हो- यही कृष्ण की अव्यभिचारिणी भक्ति है।
17) एकान्त स्थान में रहने का स्वभाव- (1) साधक की रुचि तो एकान्त में रहने की होनी चाहिये, परन्तु यदि एकान्त न मिले, तो मन में जरा भी विकार नहीं होना चाहिये। मन में विचार यही रहे कि संसार का असंग तो स्वतः हो रहा है और उसका (संसार से) संग कभी हो सकता नहीं। अतः संसार का संग कभी बाधक नहीं हो सकता।
(2) वैसे निर्जन वन में मात्र पड़े रहने से एकान्त प्राप्त नहीं होता, क्योंकि संसार का बीज यह शरीर तो साथ में है। अतः एकान्त तो तभी होगा, जब शरीर, मन, बुद्धि और इन्द्रियों से सम्बन्ध का सर्वथा नाश हो जाय। वैसे भी कृष्ण के सिवाय पहले भी कुछ नहीं था और अन्त में भी कुछ नहीं रहेगा। अतः अभी भी केवल कृष्ण ही हैं, उन्हीं पर दृष्टि रहे।
18) जन समुदाय में प्रीति का न होना- अर्थात् कहाँ क्या हो रहा है, कब क्या होगा, कैसे होगा आदि सांसारिक बातों को सुनने, जानने की किंचिन्मात्र भी इच्छा न हो, परन्तु सत्संग की रुचि जनसमुदाय में रुचि नहीं कहलाती है, वह तो आवश्यक है।