Bhagavad Gita 13.11: Verse 11
अध्यात्मज्ञाननित्यत्वं तत्त्वज्ञानार्थदर्शनम्।
एतज्ज्ञानमिति प्रोक्तमज्ञानं यदतोन्यथा।।13.11।।
भावार्थ - Gist
अध्यात्मज्ञान में नित्य-निरन्तर रहना, तत्त्वज्ञान के अर्थरूप परमात्मा को सब जगह देखना- यह (पूर्वोक्त बीस साधन समुदाय) तो ज्ञान है (और) जो इसके विपरीत है, वह अज्ञान है- ऐसा कहा गया है।
To dwell constantly in the knowledge of the Supreme Spirit, to see the Supreme Divine Entity as the all-compassing essence of all knowledge—as explained in previous 20 practices-is declared to be (gyan), and what is contrary to it, is called ignorance (agyan).
व्याख्या - Explanation
19) अध्यात्मज्ञान में नित्य निरन्तर रहना- सम्पूर्ण शास्त्रों का उद्देश्य कृष्ण प्राप्ति है- ऐसा निश्चय करने के बाद कृष्ण तत्त्व जितना भी समझ में आये, उसका मनन करना चाहिए संसार की स्वतन्त्र सत्ता के अभाव का और कृष्ण की सत्ता का नित्य निरंतन मनन करना चाहिये।
20) तत्त्वज्ञान के अर्थ रूप भगवान् को सब जगह देखना- तत्त्वज्ञान का अर्थ है भगवान्। वह भगवान् सब देश, काल, वस्तु, व्यक्ति, घटना आदि में ज्यों के त्यों परिपूर्ण है। अतः साधक की दृष्टि सदैव ही भगवान् कृष्ण पर रहनी चाहिये- यही उसका स्वभाव बन जाय। ऐसा होने पर उसे कृष्ण का अनुभव हो जायेगा।
विशेष बात- जब मनुष्य का उद्देश्य कृष्ण प्राप्ति हो जाता है, तब दुर्गुणों और दुराचार की जड़ कट जाती है, चाहे साधक को इसका अनुभव हो या न हो। जड़ कटने पर भी पत्ते कुछ दिन हरे रहते हैं, ऐसे ही कृष्ण प्राप्ति का उद्देश्य होने पर अवगुण मिटने पर भी साधक को कुछ समय दीखते हैं, पर समय के साथ उनका सर्वथा अभाव दीखने लगता है।
Note: When the striver’s objective or goal is to attain Krishna, then all evils and vicious actions are cut off at their roots from his nature. The striver himself may feel their lingering presence or no, but they survive in a much reduced form for a short while only and then disappear altogether, leaving not a trace behind.