Bhagavad Gita 13.6: Verse 6
इच्छा द्वेषः सुखं दुःखं सङ्घातश्चेतनाधृतिः।
एतत्क्षेत्रं समासेन सविकारमुदाहृतम्।।13.6।।
भावार्थ - Gist
इच्छा, द्वेष, सुख, दुःख, संघात (शरीर) चेतना (प्राण-शक्ति) (और) धृति- इन विकारों सहित यह क्षेत्र संक्षेप से कहा गया है। ৷৷13.6৷৷
Desire, aversion, joy, sorrow, the body, consciousness (life-breath) and firmness; these constitute kshetra. The kshetra with its modifications, is thus described briefly.
व्याख्या - Explanation
1) इच्छा- अमुक वस्तु, व्यक्ति, परिस्थिति आदि मिले, ऐसी मन में जो चाहना रहती है, उसको ‘इच्छा’ कहते हैं। कृष्ण ने क्षेत्र के विकारों में सबसे पहले इच्छा का नाम लिया है, अतः यही मुख्य विकार है। ऐसा कोई पाप और दुःख नहीं है, जो इच्छा से न पैदा होता हो।
द्वेष- कामना में बाधा आने पर क्रोध पैदा होता है। अन्तकरण में उस क्रोध का जो सूक्ष्म रूप रहता है, उसको ‘द्वेष’ कहते हैं।
सुख- अनुकूलता के आने पर मन में जो प्रसन्नता होती है, उसको ‘सुख‘ कहते हैं।
दुःखम्- प्रतिकूलता के आने पर मन में जो हलचल होती है, अच्छा नहीं लगता है उसको ‘दुःख’ कहते हैं।
संघात- चौबीस तत्त्वों से बना हुआ शरीर रूप समूह का नाम ‘संघात’ है।
चेतना- चेतना नाम प्राणशक्ति का है अर्थात् शरीर में जो प्राण चल रहे हैं उसका नाम ‘चेतना’ है। यह प्राण-शक्ति निरन्तर नष्ट होती रहती है। अतः यह भी विकार रूप है।
धृति- यह धारणशक्ति का नाम है। मनुष्य कभी धैर्य को धारण करता है, कभी छोड़ देता है, कभी अच्छी बात धारण करता है कभी विपरीत बात धारण करता है। अतः धृति भी विकार है।
2) क्षेत्रज्ञ जब अविवेक से क्षेत्र के साथ अपना सम्बन्ध मान लेता है, तब इच्छा, द्वेष आदि विकार पैदा होते हैं। ये विकार मिटाये जा सकते हैं, क्योंकि क्षेत्रज्ञ का क्षेत्र के साथ संयोग केवल माना हुआ है।
1 (i) Desire: That is the wish for certain objects, persons, circumstances etc. Krishna mentions “desire” first of all among the modifications of the field (kshetra), so obviously this is the primary fault. There is no sin or sorrow which does not arise out of desire.
(ii) Aversion(dvesha) signifies envy and hurt to one’s pride, which awakens anger. Aversion is a subtle form of anger. Thus the term ‘aversion’ includes envy, jealousy and anger etc.
2 When the soul (kshetrgya) assumes his connection with the body (kshetra), the distortions or modifications of kshetra make their appearance. These modifications can be removed, since the relation of kshetragya with kshetra is only an assumption.