Bhagavad Gita 13.7: Verse 7
अमानित्वमदम्भित्वमहिंसा क्षान्तिरार्जवम्।
आचार्योपासनं शौचं स्थैर्यमात्मविनिग्रहः।।13.7।।
भावार्थ - Gist
अपने में श्रेष्ठता का भाव न होना, दिखावटीपन न होना, अहिंसा, क्षमा, सरलता, गुरु की सेवा, बाहर-भीतर की शुद्धि, स्थिरता (और) मनका वश में होना। ৷৷13.7৷৷
Absence of pride in the self, freedom from hypocrisy, non-violence, forgiveness, simplicity, service and worship of the teacher, outward and inward purity, steadfastness, and control over mind.
व्याख्या - Explanation
1) अमानित्वम्- अपने में श्रेष्ठता का भाव न होना ‘अमानित्वम्’ है। वर्ण, आश्रम, योग्यता, विद्या, पद आदि को लेकर अपने में श्रेष्ठता का भाव होता है कि मैं आदरणीय हूँ, परन्तु यह शरीर के साथ सम्बन्ध मानने से ही होता है। अतः यह भाव जितना कम होगा, उतना ही जड़ता का महत्त्व कम होगा।
उपाय- जब साधक खुद बड़ा बन जाता है, तो उसमें मानीपन आ जाता है। अतः साधक को चाहिये कि अपने से साधन में जो अधिक बड़े हैं, उनका संग करे, इससे मानीपन दूर हो जाता है। अतः साधक को दूसरों की विशेषता की तरफ दृष्टि रखना चाहिये। हाँ, दूसरों को मान देते समय साधक का उद्देश्य अपने में मानीपन मिटाना होना चाहिये, न कि बदले में दूसरों से मान पाने का।
2) अदम्भित्वम्- दम्भ नाम दिखावटीपन का है। अपने में गुण न होने पर गुण दिखाना, अपने मे गुण कम हो और बाहर से ज्यादा दिखाये, यह सब दम्भ है। इसी प्रकार सदाचार, पवित्रता होते हुए भी हम लोगों के मजाक के पात्र न बन जायें, ऐसा सोचकर अपनी पवित्रता छोड़कर, दूसरे की तरह का भाव दिखाना भी दम्भ है।
उपाय- साधक को अपना उद्देश्य एकमात्र कृष्णप्राप्ति का रखना चाहिये। फिर लोग उसके बारे में क्या सोचते हैं, इसकी परवाह न करके अपने साधन में लगा रहे। ऐसी सावधानी रखने से दम्भ मिट जायेगा।
3) अहिंसा- मन, वाणी, शरीर से किसी को भी किंचिन्मात्र भी दुःख न देने का नाम अहिंसा है।
उपाय- साधक को सबके सुख में अपना सुख, सबके हित में अपना हित मानना चाहिये। सब अपने ही स्वरूप हैं- ऐसा विवेक जाग्रत् होने पर किसी को भी दुःख देने की क्रिया नहीं होगी और अहिंसा भाव स्वतः आ जायेगा।
4) क्षान्ति- क्षान्ति नाम सहनशीलता अर्थात् क्षमा का है। सामर्थ्य होते हुए भी अपराधी को किंचिन्मात्र भी दण्ड न मिले- ऐसा भाव रखना ही ‘क्षान्ति’ है।
उपाय- हमारे स्वरूप में कभी विकृति आ ही नहीं सकती। अतः यदि यह विचार आ जाय कि अमुक ने हमें दुःख दिया है, तो इसको याद करके कि ‘हमारे अन्दर विकृति आ ही नहीं सकती, हमारा बिगाड़ हो ही नहीं सकता’- उसे क्षमा करना आसान हो जाता है।
5) आर्जवम्- सरल सीधेपन के भाव को ‘आर्जव‘ कहते हैं। यह सरलता, शरीर, मन और वाणी में होना चाहिये। शरीर की सजावट न होना, रहन-सहन में सादगी, ऐंठ-अकड़ न होना- यह शरीर की सरलता है। निष्कपटता, सौम्यता, दया आदि का भाव मन की सरलता है। व्यंग्य, निन्दा, चुगली आदि न करना, चुभने वाले वचन न बोलना- यह वाणी की सरलता है।
6) आचार्योपासनम्- यहाँ आचार्य जीवन्मुक्त महापुरुष का ही वाचक है। आचार्य को दण्डवत् प्रणाम करना, उनका आदर-सत्कार करना और उनके शरीर की सेवा करना भी उनकी उपासना है, किन्तु वास्तव में उनके सिद्धान्तों और भावों के अनुसार जीवन बनाना ही उनकी सच्ची उपासना है।
ज्ञानमार्ग में गुरु की जितनी आवश्यकता है, उतनी आवश्यकता भक्तिमार्ग में नहीं है। कारण कि भक्तिमार्ग में साधक सर्वथा कृष्ण के आश्रित होकर ही साधना करता है। अतः कृष्ण स्वयं उसका योगक्षेम वहन करते हैं (9.22)। परन्तु ज्ञानमार्ग में साधक अपनी साधना के बल पर चलता है, इसलिये उसमें कमियाँ रह जाती हैं और उनकी ओर ध्यान न रहने से वह अपने अपूर्ण ज्ञान को पूर्ण ज्ञान समझ लेता है। इसलिये कृष्ण कह रहे हैं कि ज्ञानमार्ग के साधक को आचार्य के पास रहकर उनकी आधीनता में काम करना चाहिये। (4.35) में भी यही कहा है।
7) शौचम्- बाहर-भीतर की शुद्धि का नाम ‘शौच’ है। जल, मिट्टी आदि से शरीर की शुद्धि होती है और दया, क्षमा, उदारता आदि से अन्तःकरण की शुद्धि होती है।
उपाय- वर्ण आश्रम के अनुसार सच्चाई के साथ धन का उपार्जन करना, झूठ, कपट का सहारा न लेना, पराया हक न आने देना, खान पान में पवित्र चीजें काम में लेना आदि से अन्तःकरण की शुद्धि होती है।
8) स्थैर्यम्- स्थैर्य नाम स्थिरता का, विचलित न होने का है। मेरे को तŸवज्ञान प्राप्त करना है- ऐसा दृढ़ निश्चय करना और उसमें विचलित न होकर तत्परता से लगे रहना ही ‘स्थैर्यम्’ है।
उपाय- (क) सांसारिक भोग और संग्रह में आसक्त पुरुषों की बुद्धि एक निश्चय वाली नहीं होती है (2.44)। अतः भोग और संग्रह की आसक्ति का त्याग आवश्यक हैै।
(ख) छोटे से छोटे संकल्प की भी हिंसा न करने से अर्थात् उस पर दृढ रहने से स्थिर रहने का स्वभाव बन जायेगा।
(ग) साधक का संतों और शास्त्रों के वचनों पर जितना अधिक विश्वास होगा उतनी ही स्थिरता आयेगी।
9) आत्मविनिग्रह- मन को वश में करने का नाम ही आत्मविनिग्रह है। मन में दो तरह की चीजे पैदा होती हैं- स्फुरणा और संकल्प। जिस स्कुरणा में मन चिपक जाता है, वह संकल्प बन जाती है। संकल्प में दो चीजें रहती हैं- राग और द्वेष। इन दोनों को लेकर मन में चिन्तन होता है। परन्तु अभ्यास (मन को बार-बार ध्येय में लगाना) और वैराग्य (वस्तु या व्यक्ति को महत्त्व न देना) से मन वश में हो जाता है। (6.35)