Bhagavad Gita 2.57: Verse 57
यः सर्वत्रानभिस्नेहस्तत्तत्प्राप्य शुभाशुभम् ।
नाभिनंदति न द्वेष्टि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता ॥2.57॥
भावार्थ - Gist
जो पुरुष सर्वत्र स्नेहरहित हुआ उस-उस शुभ या अशुभ वस्तु को प्राप्त होकर न प्रसन्न होता है और न द्वेष करता है, उसकी बुद्धि स्थिर है॥2.57॥
The one who, remaining detached at all times; neither rejoices at auspicious circumstances nor feels resentment and envy at inauspicious ones is a person of stable intellect.

व्याख्या - Explanation
स्थिर बुद्धि कौन है? – उसके क्या लक्षण हैं और कैसे बोलता है?
1. इसका उत्तर देते हुए कृष्ण ने सदैव ही भाव को क्रिया से अधिक महत्त्व दिया है। जैसा भाव होगा, क्रियाएँ वैसी ही होंगी। अगर मनुष्य खुष है, तो उसकी बोली वैसी होगी और अगर वह दुःखी है, तो उसकी बोली भिन्न होगी। अतः स्थिर बुद्धि के बोल कैसे होंगे, यह बताने के बजाय वे बताते हैं कि उसके भाव कैसे होते हैं?
लक्षण- कामनाओं का त्याग एवं आत्मतुष्ट।
भाव – सब भावों में समता, मन पर वष।
2. पातंजल योग दर्षन में मन की स्थिरता को महत्त्व दिया है, किन्तु गीता बुद्धि की स्थिरता को अधिक महत्त्व देती है। मन तो स्थिर हो नहीं सकता (सिवाय ध्यान में), पर बुद्धि को यदि स्थिर रख सकें, तो मन वष में हो सकता है। 3.41 में कृष्ण कहते भी हैं कि बुद्धि मन से पर (श्रेष्ठ, बलवान्) है। बुद्धि को स्थिर करने के लिये भौतिक कामनाओं का त्याग आवष्यक है। कृष्ण यहाँं बता रहे हैं कि भौतिक कामनाओं का त्याग किये बिना बुद्धि स्थिर नहीं हो सकती है। जो स्थिर बुद्धि है, वह सभी परिस्थितियों (सुख, दुःख, षुभ, अषुभ, राग, क्रोध, भय प्रदान करने वाली) में सम रहता है।
स्थिर बुद्धि कैसे हो, यह श्रीकृष्ण अब बतलाते हैं-
Krishna explains – who is a person of stable intellect? What are his characteristics and how does he speak?
Characteristics – freedom from material desires and self contentment.
Attitude – Samata (equanimity) in all situations and control of mind.