Bhagavad Gita 3.37: Verse 37
श्री भगवानुवाच
काम एष क्रोध एष रजोगुणसमुद्भवः।
महाशनो महापाप्मा विद्ध्येनमिह वैरिणम्।।3.37।।
भावार्थ - Gist
श्री भगवान बोले- रजोगुण से उत्पन्न हुआ यह काम ही क्रोध है। यह बहुत खाने वाला अर्थात भोगों से कभी न अघानेवाला और बड़ा पापी है। इसको ही तू इस विषय में वैरी जान॥3.37॥
The Lord said: Born out of the mode of passion (rajoguna), this evil force behind his sin is lust (desire). It is this lust which transmutes into anger. It is all- consuming and the embodiment of evil. In this context you must recognize it as your greatest enemy.
व्याख्या - Explanation
1. अविनाशी श्रीकृष्ण की प्राप्ति की इच्छा करना कामना के समान प्रतीत होते हुए भी वास्तव में कामना नहीं है, क्योंकि नाशवान् पदार्थों की कामना तो कभी पूरी होती नहीं, प्रत्युत बढ़ती ही रहती है, परन्तु परमात्मा की इच्छा परमात्मा की प्राप्ति हो जाने पर पूरी हो जाती है।
2. कामना सम्पूर्ण पापों, संतापों, दुःखों आदि की जड़ है। कामना वाले व्यक्ति को जाग्रत् अवस्था में सुख मिलना तो दूर रहा, स्वप्न में भी कभी सुख नहीं मिलता। जो चाहते हैं, वह न हो और जो नहीं चाहते हैं, वह हो जाये- इसी को दुःख कहते हैं। यदि ‘चाहने’ और ‘नहीं चाहने’ को छोड़ दें, तो फिर दुःख है ही कहाँ?
3. कामना की पूर्ति पर लोभ उत्पन्न होता है और कामना में बाधा पहुँचने पर क्रोध उत्पन्न होता है। यदि बाधक हमसे अधिक बलवान् हो, तो क्रोध न होकर भय उत्पन्न होता है।
4. कामना पूरी होने पर हम उसी अवस्था में आ जाते हैं, जिस अवस्था में हम कामना उत्पन्न होने से पहले थे। किसी के मन में पाँच लाख रुपये पाने की कामना पैदा हुई, तो बड़े परिश्रम के बाद, शायद 10 लाख की नौकरी मिलने के बाद उसे पा जाय, किन्तु पाने के कुछ ही समय बाद वह चाहेगा कि उसे 10 लाख रुपये मिल जायें। अर्थात् उसकी कामना पूरी तो नहीं हुई, परन्तु वह उससे परिश्रम कराती रही और इसी तरह आगे भी कराती रहेगी।
5. कामना के उत्पन्न होते ही मनुष्य अपने कर्तव्य से, अपने स्वरूप से तथा अपने भगवान् से विमुख होकर नाषवान् संसार के सम्मुख हो जाता है, फलस्वरूप उससे पाप होते हैं और वह नरकों तथा नीच योनियों को प्राप्त होता है।