Bhagavad Gita 8.15: Verse 15
मामुपेत्य पुनर्जन्म दुःखालयमशाश्वतम्।
नाप्नुवन्ति महात्मानः संसिद्धिं परमां गताः।।8.15।।
भावार्थ - Gist
महात्मा लोग मुझे प्राप्त करके दुःखालय अर्थात् दुःखों के घर (और) अशाश्वत अर्थात् निरन्तर बदलने वाले पुनर्जन्म को प्राप्त नहीं होते, (क्योंकि वे) परम सिद्धि को प्राप्त हो गये हैं अर्थात् उनको परम प्रेम की प्राप्ति हो गयी है। ॥8.15॥
Having attained Me, the great souls (Mahatmas) are no more subject to rebirth in this world which is transitory and the abode of sorrow; for they have reached the state of highest perfection.

व्याख्या - Explanation
1) जो भगवान् का दर्शन कर ले अथवा भगवान् को तत्त्व से जान ले, उसका पुनर्जन्म नहीं होता। किसी भी प्रकार के शरीर को धारण करने में दुःख ही दुःख है। इसीलिये पुनर्जन्म को दुःखालय कहा है।
2) (अ) जन्म के समय जेर से बाहर आते समय किसी भी प्राणी को वैसा ही कष्ट होता है, जैसा कि शरीर की चमड़ी उतारते समय होता है। परन्तु नवजात शिशु असहाय होता है और अपनी पीड़ा व्यक्त करने में असमर्थ होता है। जन्म के बाद पलते समय जब-जब उसे कष्ट होता है, वह रोकर उसे बताता है। थोड़ा बड़ा होने पर उसे खिलौनों की इच्छा होती है और यदि वे न मिलें, तो उसे कष्ट होता है। रात भर जाग कर पढ़ना पड़ता है- पढ़ाई में उसे कष्ट होता है। पढ़ाई के समय शासन में रहना पड़ता है। पूछने पर यदि उत्तर न आये, तो कष्ट होता है। परीक्षा में फेल हो जाये, तो कभी-कभी इतना दुःख होता है कि कुछ विद्यार्थी आत्महत्या भी कर लेते हैं।
(ब) युवावस्था में मनपसंद विवाह न हो, तो कष्ट होता है। विवाह होने पर यदि पति या पत्नी अनुकूल न हो, तो दुःख होता है। वृद्धावस्था में अपने शरीर में असमर्थता आ जाती है। अनेक रोगों का आक्रमण होने लगता है। सुख से उठना-बैठना, चलना-फिरना, खाना-पीना आदि भी कठिन हो जाता है। घर वालों के अपशब्द सुनने पड़ते हैं। दुःखों को कहाँ तक कहें। उनका कोई अन्त नहीं। इसी प्रकार पशु, पक्षियों का जीवन भी कष्टों से भरा होता है। इसीलिये पुनर्जन्म को दुःखालय कहा गया है।
3) कृष्ण के भक्त अथवा संत पुरुष जब कृष्ण के अवतारकाल में पार्षद के रूप में जन्म लेते हैं, तो उनका जन्म दुःखालय और अशाश्वत नहीं होता, क्योंकि उनका जन्म कर्मजन्य नहीं होता, प्रत्युत वह भगवदिच्छा से होता है।
4) कृष्ण ने गीता में अपनी भक्ति की महिमा विशेष रूप से कही है। उन्होंने अपने भक्तों को सभी योगियों में श्रेष्ठतम कहा है (6.47) और अपने को भक्तों के लिये सुलभ बताया है। (8.14)
5) 7.19 में कृष्ण ने संसार को अपना स्वरूप कहा है (वासुदेवः सर्वम्), पर यहाँ उसे दुःखालय कहा है। इसका तात्पर्य है कि जो मनुष्य इससे सुख लेने की इच्छा रखता है, उसके लिये तो यह भयंकर दुःख देने वाला है। पर जो सांसारिक वस्तु और क्रियाओं से व्यक्तियों की सेवा करता है, उसके लिये संसार कृष्ण का स्वरूप है। सुख की आशा, कामना और भोग महान् दुःख के कारण हैं। जिस क्षण सुख-बुद्धि का त्याग हो जाता है, उसी क्षण कृष्ण की प्राप्ति है।