KRISHNA KUNJ, 14/E/63, Mansarovar yojna, Sector 1, Jaipur-302020
+91 9799648308

Chapter13

Ksetra-KsetrajnayVibhagYog
इस अध्याय में शरीर (क्षात्र), आत्मा (क्षत्रिय) और सुपर्शल (भगवान) के बारे में विस्तार से वर्णन किया गया है। पहले कहा जाने के बाद कि जीवित प्राणी शरीर से अलग हैं कृष्ण अर्जुन को यह बताने से शुरू करते हैं कि शरीर उनका नहीं है और इसलिए उन्हें ष्इस शरीरष् के रूप में संबोधित किया जाना चाहिए। फिर वह बताता है कि निकाय के घटक क्या हैं और इसमें सभी संशोधन मौजूद हैं।
इसके बाद कृष्ण आत्मा और शरीर के साथ उसके संबंध के बारे में बात करते हैं। विभिन्न जन्मों में विभिन्न प्रकार के शरीर धारण करने वाली आत्मा का कारण क्या है? जन्म और मृत्यु की इस प्रक्रिया से वह कैसे छुटकारा पा सकता था?
अंत में कृष्ण ने अध्याय का समापन यह कहते हुए किया कि उन्होंने जो क्षत्र और क्षत्रिय के बीच अंतर को समझा है वह सर्वाेच्च देवत्व को प्राप्त करता हैैं।

This chapter describes somewhat in detail about the body (kshetra), soul (kshtragya) and the Supersoul (God). After having said earlier that the living creatures are different from the body Krishna starts by telling Arjun that the body is not his and hence should be addressed as “this body. Then He explains what are the constituents of the body and what all modifications are present in it.
Thereafter Krishna talks about soul and its relationship with the body. What is the reason of soul assuming different types of bodies in various births? How could he get rid of this process of birth and death?
Finally Krishna concludes the chapter by saying that he who has understood the difference between kshetra and kshetragya attains the Supreme Divinity.

Bhagavad Gita 13.1 : Verse 1:View

अर्जुन उवाच
प्रकृतिं पुरुषं चैव क्षेत्रं क्षेत्रज्ञमेव च।
एतद्वेदितुमिच्छामि ज्ञानं ज्ञेयं च केशव।।13.1।।

Bhagavad Gita 13.2 : Verse 2:View

क्षेत्रज्ञं चापि मां विद्धि सर्वक्षेत्रेषु भारत।
क्षेत्रक्षेत्रज्ञयोर्ज्ञानंयत्तज्ज्ञानं मतं मम।।13.2।।

Bhagavad Gita 13.3 : Verse 3:View

तत्क्षेत्रं यच्च यादृक् च यद्विकारि यतश्च यत्।
स च यो यत्प्रभावश्च तत्समासेन मे श्रृणु।।13.3।।

Bhagavad Gita 13.4 : Verse 4:View

ऋषिभिर्बहुधा गीतं छन्दोभिर्विविधैः पृथक्।
ब्रह्मसूत्रपदैश्चैव हेतुमद्भिर्विनिश्चतैः।।13.4।।

Bhagavad Gita 13.5 : Verse 5:View

महाभूतान्यहङ्कारो बुद्धिरव्यक्तमेव च।
इन्द्रियाणि दशैकं च पञ्च चेन्द्रियगोचराः।।13.5।।

Bhagavad Gita 13.6 : Verse 6:View

इच्छा द्वेषः सुखं दुःखं सङ्घातश्चेतनाधृतिः।
एतत्क्षेत्रं समासेन सविकारमुदाहृतम्।।13.6।।

Bhagavad Gita 13.7 : Verse 7:View

अमानित्वमदम्भित्वमहिंसा क्षान्तिरार्जवम्।
आचार्योपासनं शौचं स्थैर्यमात्मविनिग्रहः।।13.7।।

Bhagavad Gita 13.8 : Verse 8:View

इन्द्रियार्थेषु वैराग्यमनहङ्कार एव च।
जन्ममृत्युजराव्याधिदुःखदोषानुदर्शनम्।।13.8।।

Bhagavad Gita 13.9 : Verse 9:View

असक्त्तिरनभिष्वङ्गः पुत्रदारगृहादिषु।
नित्यं च समचित्तत्वमिष्टानिष्टोपपत्तिषु।।13.09।।

Bhagavad Gita 13.10 : Verse 10:View

मयि चानन्ययोगेन भक्तिरक्व्यभिचारिणी।
विविक्तदेशसेवित्वमरतिर्जनसंसदि।।13.10।।

Bhagavad Gita 13.11 : Verse 11:View

अध्यात्मज्ञाननित्यत्वं तत्त्वज्ञानार्थदर्शनम्।
एतज्ज्ञानमिति प्रोक्तमज्ञानं यदतोन्यथा।।13.11।।

Bhagavad Gita 13.12 : Verse 12:View

ज्ञेयं यत्तत्प्रवक्ष्यामि यज्ज्ञात्वाऽमृतमश्नुते।
अनादिमत्परं ब्रह्म न सत्तन्नासदुच्यते।।13.12।।

Bhagavad Gita 13.13 : Verse 13:View

सर्वतः पाणिपादं तत्सर्वतोऽक्षिशिरोमुखम्।
सर्वतः श्रुतिमल्लोके सर्वमावृत्य तिष्ठति।।13.13।।

Bhagavad Gita 13.14 : Verse 14:View

सर्वेन्द्रियगुणाभासं सर्वेन्द्रियविवर्जितम्।
असक्तं सर्वभृच्चैव निर्गुणं गुणभोक्तृ च।।13.14।।

Bhagavad Gita 13.15 : Verse 15:View

बहिरन्तश्च भूतानामचरं चरमेव च।
सूक्ष्मत्वात्तदविज्ञेयं दूरस्थं चान्तिके च तत्।।13.15।।

Bhagavad Gita 13.16 : Verse 16:View

अविभक्तं च भूतेषु विभक्तमिव च स्थितम्।
भूतभर्तृ च तज्ज्ञेयं ग्रसिष्णु प्रभविष्णु च।।13.16।।

Bhagavad Gita 13.17 : Verse 17:View

ज्योतिषामपि तज्ज्योतिस्तमसः परमुच्यते।
ज्ञानं ज्ञेयं ज्ञानगम्यं हृदि सर्वस्य विष्ठितम्।।13.17।।

Bhagavad Gita 13.18 : Verse 18:View

इति क्षेत्रं तथा ज्ञानं ज्ञेयं चोक्तं समासतः।
मद्भक्त एतद्विज्ञाय मद्भावायोपपद्यते।।13.18।।

Bhagavad Gita 13.19,20 : Verse 19,20:View

प्रकृतिं पुरुषं चैव विद्ध्यनादी उभावपि।
विकारांश्च गुणांश्चैव विद्धि प्रकृतिसंभवान्।।13.19।।

कार्यकारणकर्तृत्वे हेतुः प्रकृतिरुच्यते।
पुरुषः सुखदुःखानां भोक्तृत्वे हेतुरुच्यते।।13.20।।

Bhagavad Gita 13.21 : Verse 21:View

पुरुषः प्रकृतिस्थो हि भुङ्क्ते प्रकृतिजान्गुणान्।
कारणं गुणसङ्गोऽस्य सदसद्योनिजन्मसु।।13.21।।

Bhagavad Gita 13.22 : Verse 22:View

उपद्रष्टाऽनुमन्ता च भर्ता भोक्ता महेश्वरः।
परमात्मेति चाप्युक्तो देहेऽस्मिन्पुरुषः परः।।13.22।।

Bhagavad Gita 13.23 : Verse 23:View

य एवं वेत्ति पुरुषं प्रकृतिं च गुणैःसह।
सर्वथा वर्तमानोऽपि न स भूयोऽभिजायते।।13.23।।

Bhagavad Gita 13.24 : Verse 24:View

ध्यानेनात्मनि पश्यन्ति केचिदात्मानमात्मना।
अन्ये सांख्येन योगेन कर्मयोगेन चापरे।।13.24।।

Bhagavad Gita 13.25 : Verse 25:View

अन्ये त्वेवमजानन्तः श्रुत्वाऽन्येभ्य उपासते।
तेऽपि चातितरन्त्येव मृत्युं श्रुतिपरायणाः।।13.25।।

Bhagavad Gita 13.26 : Verse 26:View

यावत्सञ्जायते किञ्चित्सत्त्वं स्थावरजङ्गमम्।
क्षेत्रक्षेत्रज्ञसंयोगात्तद्विद्धि भरतर्षभ।।13.26।।

Bhagavad Gita 13.27 : Verse 27:View

समं सर्वेषु भूतेषु तिष्ठन्तं परमेश्वरम्।
विनश्यत्स्वविनश्यन्तं यः पश्यति स पश्यति।।13.27।।

Bhagavad Gita 13.28 : Verse 28:View

समं पश्यन्हि सर्वत्र समवस्थितमीश्वरम्।
न हिनस्त्यात्मनाऽऽत्मानं ततो याति परां गतिम्।।13.28।।

Bhagavad Gita 13.29 : Verse 29:View

प्रकृत्यैव च कर्माणि क्रियमाणानि सर्वशः।
यः पश्यति तथाऽऽत्मानमकर्तारं स पश्यति।।13.29।।

Bhagavad Gita 13.30 : Verse 30:View

यदा भूतपृथग्भावमेकस्थमनुपश्यति।
तत एव च विस्तारं ब्रह्म सम्पद्यते तदा।।13.30।।

Bhagavad Gita 13.31 : Verse 31:View

अनादित्वान्निर्गुणत्वात्परमात्मायमव्ययः।
शरीरस्थोऽपि कौन्तेय न करोति न लिप्यते।।13.31।।

Bhagavad Gita 13.32 : Verse 32:View

यथा सर्वगतं सौक्ष्म्यादाकाशं नोपलिप्यते।
सर्वत्रावस्थितो देहे तथाऽऽत्मा नोपलिप्यते।।13.32।।

Bhagavad Gita 13.33 : Verse 33:View

यथा प्रकाशयत्येकः कृत्स्नं लोकमिमं रविः।
क्षेत्रं क्षेत्री तथा कृत्स्नं प्रकाशयति भारत।।13.33।।

Bhagavad Gita 13.34 : Verse 34:View

क्षेत्रक्षेत्रज्ञयोरेवमन्तरं ज्ञानचक्षुषा।
भूतप्रकृतिमोक्षं च ये विदुर्यान्ति ते परम्।।13.34।।