Bhagavad Gita 18.67: Verse 67
इदं ते नातपस्काय नाभक्ताय कदाचन।
न चाशुश्रूषवे वाच्यं न च मां योऽभ्यसूयति।।18.67।।
भावार्थ - Gist
यह सर्वगुुह्यतम वचन तुझे अतपस्वी को नहीं कहना चाहिये, अभक्त को कभी नहीं कहना चाहिये तथा जो सुनना नहीं चाहता, (उसको) नहीं कहना चाहिये और जो मुझमें दोषदृष्टि करता है, (उसको भी) नहीं कहना चाहिये। ৷৷18.67॥
This secretmost of all messages must not be revealed by you to the one who lacks austerity, never to the one who lacks devotion, nor to the one who is unwilling to hear, or the one who sees faults in Me.

व्याख्या - Explanation
1) तप के बिना अन्तःकरण में पवित्रता नहीं आती। इसीलिये कृष्ण कहते हैं कि अतपस्वी को यह सर्वगुह्यतम रहस्य नहीं कहना चाहिये। जो सहनशील नहीं है, वह भी अतपस्वी है।
2) जो भक्ति से रहित है अर्थात् जिसका कृष्ण पर भरोसा नहीं है, उसे भी यह बात मत कहना, क्योंकि श्रद्धा न होने से विपरीत धारणा हो सकती है कि ‘कृष्ण आत्मश्लाघी, स्वार्थी हैं और दूसरों को वश में करना चाहते हैं।’ इन दुर्भावों के कारण वह अपना पतन कर लेगा, इसलिये ऐसे अभक्त को कभी नहीं कहना है।
3) जो इस रहस्य को सुनना नहीं चाहता, उसे भी मत कहना, क्योंकि ऐसी दशा में वह इसका तिरस्कार करेगा। यह भी उसके द्वारा एक अपराध होगा।
4) जो मुझमें दोषारोपण करता है, उसको भी मत सुनाना, क्योंकि उसका अन्तःकरण मलिन है।
कृष्ण ने अभक्त और दोष दृष्टिवाले को सर्वगुह्यतम वचन न कहने पर विशेष जोर दिया है। अतपस्वी और न सुनने वाले को कहने में दोष उतना नहीं है, क्योंकि अभक्त और दोष दृष्टि वाले की विपरीत बुद्धि है।