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Chapter 5

KarmSanyas Yog
यह अध्याय शुरुआत में परम लक्ष्य को प्राप्त करने वाले परम लक्ष्य की प्राप्ति के दृष्टिकोण से कर्मयोग के समान है। इसके बावजूद इस अध्याय में कर्मयोग की और चर्चा की गई है। इस अध्याय में यह भी कहा गया है कि भगवान न तो किसी को अच्छे या बुरे कर्म करने के लिए मजबूर करता है, न ही वह किसी के कर्मों का फल स्वीकार करता है।
मनुष्य इस संसार में दुःख और तनावों में क्यों रहता है? इस अध्याय में इसके एकान्त कारण का खुलासा किया गया है। इसके अलावा अध्याय हमें यह भी बताता है कि हम कैसे खुश रह सकते हैं।
इस अध्याय का निष्कर्ष यह है कि कृष्ण संपूर्ण ब्रह्मांड के शासक हैं और हर जीव को प्यार करते हैं।

This chapter in the beginning refers to Karmayoga as identical to Sankhyayoga from the point of view of ultimate goal- attaining Supreme Divinity. In spite of that Karmayoga has been further discussed in this chapter. This chapter also says that God neither compels anyone to perform noble or evil deeds, nor does He accept fruits of anyone’s actions.
Why does a man keep on getting sorrows and tensions in this world? The solitary reason for this has been disclosed in this chapter. Further the chapter also tells us how we could remain happy.
The concluding verse of this chapter is that Krishna is the ruler of the entire universe and loves every living being.

Bhagavad Gita 5.1 : Verse 1:View

अर्जुन उवाच
संन्यासं कर्मणां कृष्ण पुनर्योगं च शंससि।
यच्छ्रेय एतयोरेकं तन्मे ब्रूहि सुनिश्चितं।।5.1।।

Bhagavad Gita 5.2 : Verse 2:View

श्री भगवानुवाच
संन्यासः कर्मयोगश्च निःश्रेयसकरावुभौ।
तयोस्तु कर्मसंन्यासात्कर्मयोगो विशिष्यते।।5.2।।

Bhagavad Gita 5.3 : Verse 3:View

ज्ञेयः स नित्यसंन्यासी यो न द्वेष्टि न काङ्क्षति।
निर्द्वन्द्वो हि महाबाहो सुखं बन्धात्प्रमुच्यते।।5.3।।

Bhagavad Gita 5.4 : Verse 4:View

सांख्ययोगौ पृथग्बालाः प्रवदन्ति न पण्डिताः।
एकमप्यास्थितः सम्यगुभयोर्विन्दते फलम्।।5.4।।

Bhagavad Gita 5.5 : Verse 5:View

यत्सांख्यैः प्राप्यते स्थानं तद्योगैरपि गम्यते।
एकं सांख्यं च योगं च यः पश्यति स पश्यति।।5.5।।

Bhagavad Gita 5.6 : Verse 6:View

संन्यासस्तु महाबाहो दुःखमाप्तुमयोगतः।
योगयुक्तो मुनिर्ब्रह्म नचिरेणाधिगच्छति।।5.6।।

Bhagavad Gita 5.7 : Verse 7:View

योगयुक्तो विशुद्धात्मा विजितात्मा जितेन्द्रियः।
सर्वभूतात्मभूतात्मा कुर्वन्नपि न लिप्यते।।5.7।।

Bhagavad Gita 5.8,9 : Verse 8,9:View

नैव किंचित्करोमीति युक्तो मन्येत तत्त्ववित्।
पश्यन् श्रृणवन्स्पृशञ्जिघ्रन्नश्नन्गच्छन्स्वपन् श्वसन्।।5.8।।

प्रलपन्विसृजन्गृह्णन्नुन्मिषन्निमिषन्नपि।
इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेषु वर्तन्त इति धारयन्।।5.9।।

Bhagavad Gita 5.10 : Verse 10:View

ब्रह्मण्याधाय कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा करोति यः।
लिप्यते न स पापेन पद्मपत्रमिवाम्भसा।।5.10।।

Bhagavad Gita 5.11 : Verse 11:View

कायेन मनसा बुद्ध्या केवलैरिन्द्रियैरपि।
योगिनः कर्म कुर्वन्ति सङ्गं त्यक्त्वाऽऽत्मशुद्धये।।5.11।।

Bhagavad Gita 5.12 : Verse 12:View

युक्तः कर्मफलं त्यक्त्वा शान्तिमाप्नोति नैष्ठिकीम्।
अयुक्तः कामकारेण फले सक्तो निबध्यते।।5.12।।

Bhagavad Gita 5.13 : Verse 13:View

सर्वकर्माणि मनसा संन्यस्यास्ते सुखं वशी।
नवद्वारे पुरे देही नैव कुर्वन्न कारयन्।।5.13।।

Bhagavad Gita 5.14 : Verse 14:View

न कर्तृत्वं न कर्माणि लोकस्य सृजति प्रभुः ।
न कर्मफलसंयोगं स्वभावस्तु प्रवर्तते ।।5.14।।

Bhagavad Gita 5.15 : Verse 15:View

नादत्ते कस्यचित्पापं न चैव सुकृतं विभुः।
अज्ञानेनावृतं ज्ञानं तेन मुह्यन्ति जन्तवः।।5.15।।

Bhagavad Gita 5.16 : Verse 16:View

ज्ञानेन तु तदज्ञानं येषां नाशितमात्मनः ।
तेषामादित्यवज्ज्ञानं प्रकाशयति तत्परम्‌ ॥5.16॥

Bhagavad Gita 5.17 : Verse 17:View

तद्‍बुद्धयस्तदात्मानस्तन्निष्ठास्तत्परायणाः ।
गच्छन्त्यपुनरावृत्तिं ज्ञाननिर्धूतकल्मषाः ॥5.17॥

Bhagavad Gita 5.18 : Verse 18:View

विद्याविनयसंपन्ने ब्राह्मणे गवि हस्तिनि।
शुनि चैव श्वपाके च पण्डिताः समदर्शिनः।।5.18।।

Bhagavad Gita 5.19 : Verse 19:View

इहैव तैर्जितः सर्गो येषां साम्ये स्थितं मनः ।
निर्दोषं हि समं ब्रह्म तस्माद् ब्रह्मणि ते स्थिताः ।।5.19।।

Bhagavad Gita 5.20 : Verse 20:View

न प्रहृष्येत्प्रियं प्राप्य नोद्विजेत्प्राप्य चाप्रियम्‌ ।
स्थिरबुद्धिरसम्मूढो ब्रह्मविद् ब्रह्मणि स्थितः ॥5.20॥

Bhagavad Gita 5.21 : Verse 21:View

बाह्यस्पर्शेष्वसक्तात्मा विन्दत्यात्मनि यत्सुखम्।
स ब्रह्मयोगयुक्तात्मा सुखमक्षयमश्नुते।।5.21।।

Bhagavad Gita 5.22 : Verse 22:View

ये हि संस्पर्शजा भोगा दुःखयोनय एव ते।
आद्यन्तवन्तः कौन्तेय न तेषु रमते बुधः।।5.22।।

Bhagavad Gita 5.23 : Verse 23:View

शक्नोतीहैव यः सोढुं प्राक्शरीरविमोक्षणात्।
कामक्रोधोद्भवं वेगं स युक्तः स सुखी नरः।।5.23।।

Bhagavad Gita 5.24 : Verse 24:View

योऽन्तःसुखोऽन्तरारामस्तथान्तर्ज्योतिरेव यः।
स योगी ब्रह्मनिर्वाणं ब्रह्मभूतोऽधिगच्छति।।5.24।।

Bhagavad Gita 5.25 : Verse 25:View

लभन्ते ब्रह्मनिर्वाणमृषयः क्षीणकल्मषाः।
छिन्नद्वैधा यतात्मानः सर्वभूतहिते रताः।।5.25।।

Bhagavad Gita 5.26 : Verse 26:View

कामक्रोधवियुक्तानां यतीनां यतचेतसाम्।
अभितो ब्रह्मनिर्वाणं वर्तते विदितात्मनाम्।।5.26।।

Bhagavad Gita 5.27,28 : Verse 27,28:View

स्पर्शान्कृत्वा बहिर्बाह्यांश्चक्षुश्चैवान्तरे भ्रुवोः।
प्राणापानौ समौ कृत्वा नासाभ्यन्तरचारिणौ।।5.27।।

यतेन्द्रियमनोबुद्धिर्मुनिर्मोक्षपरायणः।
विगतेच्छाभयक्रोधो यः सदा मुक्त एव सः।।5.28।।

Bhagavad Gita 5.29 : Verse 29:View

भोक्तारं यज्ञतपसां सर्वलोकमहेश्वरम्।
सुहृदं सर्वभूतानां ज्ञात्वा मां शान्तिमृच्छति।।5.29।।